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शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

१५६.पतंग


मेरी डोर उसके हाथों में है,
वह जब-जैसे चाहता है,
मुझे नचाता है.

कभी मुझे ढीला छोड़ देता है,
कभी अपनी और खींच लेता है,
कभी-कभी तो दूर से ही 
मुझे चक्कर खिला देता है,
जैसे महसूस कराना चाहता हो 
कि मैं उसके नियंत्रण में हूँ. 

मैं बरसात,गर्मी,सर्दी,
तेज़ हवाएं - सब कुछ 
अकेले बर्दाश्त करती हूँ,
वह कहीं आराम से बैठकर 
चाय की चुस्कियों के बीच 
मुझे उड़ाता रहता है. 

कभी-कभी जब मैं उससे दूर 
बादलों के बीच होती हूँ,
तो मुझे भ्रम हो जाता है 
कि मैं मुक्त हो गई हूँ,
पर वह तुरंत डोर खींच लेता है 
और कहीं कोने में पटक देता है 
ताकि अगले दिन मुझे फिर उड़ा सके. 
















8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 8-2-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1883 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  2. सच कहा पतंग की डोर किसी दूसरे के हाथ में होती है। जिसके हाथ में डोर वही उसे नचाता भी है। जैसे चाहे वैसे। पर जैसे ही डोर टूटती है। तो पंतग आजाद हवा में कैसे हिलोरें लेती है, वह तो देखते ही बनता है।

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  3. बहुत खूब ... जिंदगी की ये डोर भी तो ऊपर वाले के हाथ है पर इंसान नहीं समझता ...
    पतंग के माध्यम से बहुत कुछ कहा है आपने ...

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  4. सच में हम कहाँ मुक्त हैं...हमारे जीवन की पतंग की डोर भी तो किसी के हाथ में है..बहुत सुन्दर प्रस्तुति....

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