बिना वज़ह कभी-कभी लगती हैं गांठें,
बिना कोशिश कभी-कभी खुलती हैं गाँठें.
तेरी भी हो सकती है, मेरी भी हो सकती है,
ग़लती चाहे जिसकी हो,चुभती हैं गाँठें.
क्या कुछ नहीं है इस मुल्क में लेकिन,
रस्सी नहीं,पीछे खींचती हैं गाँठें.
चंद रोज़ रोक दें तरक्क़ी के सब काम,
पहले मिल के खोल लें बरसों की गाँठें.
सदियों पुरानी अभी खुली नहीं फिर भी,
लगाए चले जा रहे हैं नित नई गाँठें.
बिना कोशिश कभी-कभी खुलती हैं गाँठें.
तेरी भी हो सकती है, मेरी भी हो सकती है,
ग़लती चाहे जिसकी हो,चुभती हैं गाँठें.
क्या कुछ नहीं है इस मुल्क में लेकिन,
रस्सी नहीं,पीछे खींचती हैं गाँठें.
चंद रोज़ रोक दें तरक्क़ी के सब काम,
पहले मिल के खोल लें बरसों की गाँठें.
सदियों पुरानी अभी खुली नहीं फिर भी,
लगाए चले जा रहे हैं नित नई गाँठें.
सार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (16-02-2015) को "बम भोले के गूँजे नाद" (चर्चा अंक-1891) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सदियों पुरानी अभी खुली नहीं फिर भी,
जवाब देंहटाएंलगाए चले जा रहे हैं नित नई गाँठें. ....sach ke kitna kareeb
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसदियों पुरानी अभी खुली नहीं फिर भी,
जवाब देंहटाएंलगाए चले जा रहे हैं नित नई गाँठें....
काश की ये गांठें खुल सकें ... और नयी न लगें ... हर शेर अर्थपूर्ण ...
बिना वज़ह भी कभी-कभी, लगती हैं गांठें,
जवाब देंहटाएंबिन कोशिश भी कभी-कभी खुलती हैं गाँठें.
वाह , मंगलकामनाएं आपको !