बेचैन इधर-उधर क्यों फिरता है परिंदे,
क्या तेरा भी छिन गया घर-बार परिंदे?
अब कहाँ वो पेड़,वो डाली,वो पत्ते,
जा किसी इमारत में बना घोंसला परिंदे।
सौ बार सोचा कर चहचहाने से पहले,
गणतंत्र है, पर बोलना मना है परिंदे।
चुगने की जल्दी न दिखाया कर इतनी,
बहेलियों के पास सारा दाना है परिंदे.
ध्यान से देख,उनके हाथों में हैं पिंजरे,
तू उनके खेलने का सामान है परिंदे।
कौड़ियों में बिकती है जहाँ जान इंसानों की,
क्या सोच के आया उस बस्ती में परिंदे?
पंख है तो तमन्ना होगी आकाश को छूने की,
पर उन्हें नहीं पसंद किसी का उड़ना परिंदे.
पंख हैं तो तमन्ना होगी आकाश को छूने कीअति सुन्दर अभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंअशोक आंद्रे
सार्थक प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (18-01-2015) को "सियासत क्यों जीती?" (चर्चा - 1862) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने.....
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भाव.
जवाब देंहटाएंपरिंदे के माध्यम से बहुर कुछ कह दिया हर शेर में ... बहुत लाजवाब ग़ज़ल ...
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ कहती एक सटीक और सुन्दर अभिव्यक्ति...
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