कोहरे में अपना गाँव
मुझे बहुत अच्छा लगता है.
न टूटी सड़कें दिखती हैं,
न सूखे नल,
न सूने पनघट,
न वीरान खेत,
न खाली खलिहान।
बरगद के नीचे का
वह चबूतरा भी नहीं दिखता,
जहाँ कभी जमघट लगता था,
हुक्के गुड़गुड़ाए जाते थे.
न नंगे बच्चे दिखते हैं,
न नशे में धुत्त युवक,
न सहमी-सहमी सी लड़कियाँ,
न वो पेड़ जहाँ पिछले दिनों
दो प्रेमी लटकाए गए थे.
नहीं दिखती मुझे
माँ की झुकी कमर,
पिता के चेहरे की झुर्रियाँ,
उनकी आँखों की उदासी,
उनका अकेलापन.
कोहरा छँटते ही मैं
शहर के लिए निकल पड़ता हूँ,
कोहरे में अपना गाँव
मुझे बहुत अच्छा लगता है.
बहुत सुंदर रचना , बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंछोटी सी अपील !
हम लोग भी अच्छा काम कर रहे हैं,
कृपया ब्लाग पर हमारा भी उत्साहवर्धन कीजिए
http://maihoonnaws.blogspot.in/
प्लीज
बहुत सुंदर. कोहरे से जिंदगी ठहर गई लगती है.
जवाब देंहटाएंनव वर्ष की शुभकामनाएं !
सार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (04-01-2015) को "एक और वर्ष बीत गया..." (चर्चा-1848) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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नव वर्ष-2015 की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर कवितायें बार-बार पढने पर मजबूर कर देती हैं. आपकी कवितायें उन्ही सुन्दर कविताओं में हैं.
जवाब देंहटाएंBahut sunder rachna waah
जवाब देंहटाएंपहले आप को नव वर्ष की ढेरों शुभकामनाएं ................प्यारी सी कविता और गजब की पंक्तियों का समावेश बहुत कुछ बयां कर देता है प्राकृतिक और मानव निर्मित मौसम को!
जवाब देंहटाएंसच से सामना जो नहीं करना होता ... गहरी बातों की सहज लिखा है ...
जवाब देंहटाएंनव वर्ष मंगलमय हो ...
बहुत सुंदर .... सुंदर भाव..
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