हवाओं, ज़रा धीरे बहो.
अभी बाती बची है मुझमें,
थोड़ा तेल भी शेष है,
सुबह होने में देर है अभी,
मुझे तनिक और जलने दो.
अगर नहीं मानना तुम्हें,
तो कर लो अपनी मर्ज़ी,
लगा लो पूरा ज़ोर,
देखना, कहीं से आएंगी,
दो कोमल हथेलियाँ,
ढांप लेंगी मेरी लौ,
बेबस कर देंगी तुम्हें.
फिर तुम कितना भी तेज़ बहो,
कितना भी ज़ोर लगा लो,
मैं बुझूंगा नहीं,
फिर तो जब तक मुझमें
बाती रहेगी, तेल रहेगा,
जब तक मैं रहूँगा,
मैं जलता रहूँगा.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (20-10-2014) को "तुम ठीक तो हो ना.... ?" (चर्चा मंच-1772) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हौसले में बहुत ताकत होती है …सुन्दर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएंरहने दो मुझे समाधि में !
अर्थपूर्ण , सार्थक अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंBilkul housala hai to tufaan se bhi lada ja sakta hai ...umda prastuti !!
जवाब देंहटाएंHim mate Marian to madame khuda.
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंदिया और बाती जब साथ-साथ हों और अपनो की छांव हो
तो तूफानों से भी निकला जा सकता है.
दो कोमल हाथों का दामन मिल जाए तो जोंदगी भर जला जा सकता है ...
जवाब देंहटाएंआपको दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें ...
बहुत हि सुंदर , ओंकार सर धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंआपकी इस रचना का लिंक दिनांकः 23 . 10 . 2014 दिन गुरुवार को I.A.S.I.H पोस्ट्स न्यूज़ पर दिया गया है , कृपया पधारें धन्यवाद !
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अनुपम प्रस्तुति....आपको और समस्त ब्लॉगर मित्रों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं...
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@बड़ी मुश्किल है बोलो क्या बताएं
ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति… दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ...
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