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शुक्रवार, 4 जुलाई 2014

१३१. पत्तों से


कब की थम चुकी बारिश,
पत्तों तैयार रहो,
तमतमाता सूरज निकलने ही वाला है.

ये जो इक्का-दुक्का बूँदें 
अब भी तुमसे चिपकी हैं,
धीरे-धीरे फिसल जाएँगी,
तुम्हें बचा नहीं पाएंगी.

हो सके, तो तुम खुद 
इतने शीतल बनो 
कि कोई जला न सके तुम्हें,
या फिर सहने की ताक़त रखो,
मुस्करा के जलना सीखो,
जलन कम महसूस होगी.

फेंक दो सारी बैसाखियाँ,
अब बस कमर कस लो,
यह ताप तुम्हें अकेले ही सहना है.

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर...
    मगर बारिश के आगमन पर ये थमने की बात क्यूँ ?

    सादर
    अनु

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (06-07-2014) को "मैं भी जागा, तुम भी जागो" {चर्चामंच - 1666} पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. पत्तों के माध्यम से जीवन दर्शन .... बहुत ही प्रभावी रचना ...

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  4. बैसाखियों के साथ कब तक चला जा सकता है...सार्थक सन्देश देती बहुत गहन और प्रभावी प्रस्तुति...

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