इस लौ में सबकी चमक है.
किसी मुस्लिम कुम्हार ने
इस मिट्टी को गूंधा है,
फिर चाक पर चढ़ाकर
दिए का आकार दिया है.
किसी सिख ने इसमें
आकंठ तेल भरा है,
किसी ईसाई ने मेहनत से
इसकी बाती बनाई है,
फिर किसी हिंदू ने इसे
प्रज्जवलित किया है.
आसान नहीं होता
अँधेरे को दूर भगाना,
जब सब मिलते हैं,
तब जाकर लौ जलती है.
sach kaha ...sabhi ka pryas hoga tabhi to lou jal sakegi ....bahut sundar
जवाब देंहटाएंजब सब मिलते हैं,
जवाब देंहटाएंतब जाकर लौ जलती है.....
सहमत हूँ ....
सत्य कथन..!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा प्रस्तुति.। मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (07-03-2014) को "बेफ़िक्र हो, ज़िन्दगी उसके - नाम कर दी" (चर्चा मंच-1575) पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
bilkul sahi ..sundar rachna .....
जवाब देंहटाएंसही सोच इस लौ को मशाल बना सकती है...ज़िन्दगी जीने का मज़ा तो सबके साथ ही आता है...बहुत सुंदर रचना और कथ्य...
जवाब देंहटाएंसटीक ... भावनात्मक ... मिल जुल कर ही तो समाज भी चलता है ...
जवाब देंहटाएंवाह....बेहद अच्छी प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@भजन-जय जय जय हे दुर्गे देवी
बेहतरीन अन्वेषी लेखन राष्ट्रीय एकता के तत्वों का सर्वग्राही समायोजन लिए है यह रचना सुंदर मनोहर विचार
जवाब देंहटाएंसुन्दर व्यंग्योक्तियाँ
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