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शनिवार, 5 अप्रैल 2014

१२१. लौ


इस लौ में सबकी चमक है.

किसी मुस्लिम कुम्हार ने 
इस मिट्टी को गूंधा है,
फिर चाक पर चढ़ाकर 
दिए का आकार दिया है.

किसी सिख ने इसमें 
आकंठ तेल भरा है,
किसी ईसाई ने मेहनत से 
इसकी बाती बनाई है,
फिर किसी हिंदू ने इसे
प्रज्जवलित किया है.

आसान नहीं होता 
अँधेरे को दूर भगाना,
जब सब मिलते हैं,
तब जाकर लौ जलती है.


11 टिप्‍पणियां:

  1. sach kaha ...sabhi ka pryas hoga tabhi to lou jal sakegi ....bahut sundar

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  2. जब सब मिलते हैं,
    तब जाकर लौ जलती है.....
    सहमत हूँ ....

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  3. बहुत ही उम्दा प्रस्तुति.। मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा

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  4. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (07-03-2014) को "बेफ़िक्र हो, ज़िन्दगी उसके - नाम कर दी" (चर्चा मंच-1575) पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  5. सही सोच इस लौ को मशाल बना सकती है...ज़िन्दगी जीने का मज़ा तो सबके साथ ही आता है...बहुत सुंदर रचना और कथ्य...

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  6. सटीक ... भावनात्मक ... मिल जुल कर ही तो समाज भी चलता है ...

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  7. बेहतरीन अन्वेषी लेखन राष्ट्रीय एकता के तत्वों का सर्वग्राही समायोजन लिए है यह रचना सुंदर मनोहर विचार

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