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गुरुवार, 14 नवंबर 2013

१०४. बू

एक समय था,
जब मेरी कल्पनाओं के पेड़ में 
खूब कविताएँ फला करती थीं,
मैं अच्छे-अच्छे फल चुनकर 
अपनी डायरी में सजा देता था,
सारे नुक्सवाले फल
डाल पर छोड़ देता था, 
पक्षियों के लिए 
या गिरकर सड़ने के लिए.

पर अब मेरी कविताओं का पेड़ 
पहले जैसा फलदार नहीं रहा, 
अब नुक्सवाले फल 
मैं डाल पर नहीं छोड़ सकता,
अब मैं उन्हें भी तोड़ता हूँ,
उन्हें भी डायरी में सजाता हूँ.

अब मेरी डायरी पहले की तरह 
महकती नहीं, उससे बू आती है,
अब मेरे पाठक कभी-कभी 
नाक बंद करके निकल जाते हैं.

अब मैं अकसर सोचता हूँ 
कि कविता लिखना छोड़ दूं.

6 टिप्‍पणियां:

  1. एक कवि के मन की बात को आपने बहुत सुन्दर तरीके से लिख डाला...
    ऐसे विचार शायद सभी के मन में आते हैं...और देखिये कितनी सुन्दर रचना का जन्म होता है....ताज़ा...महकती...सुस्वादु रचना......:-)

    सादर
    अनु

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  2. ऐसा ही हर कवि सोचता है..... लेकिन उनकी लेखनी जब भी चले सुंदर कविता का ही जन्म होता है
    सुंदर रचना......

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  3. कवि और कविता आइना होता है समाज का ... और जो दिखता है उसे ही लिखता है .... फिर चाहे वो गुलाब हो या बारूद हो या सड़ता हुआ कुछ ...

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  4. इस तरह के भाव प्रत्येक रचनाकार के मन में कभी न कभी आते हैं लेकिन वह लेखन से दूर नहीं रह पाता और फिर प्रभावी रचनाएँ उसकी कलम से निकलने लगती हैं...बहुत सुन्दर प्रस्तुति...

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  5. वाह . .
    चिंतनीय विषय ! शुभकामनायें आपकी कलम को !

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  6. आपकी तो समस्त रचनाएं ख़ुशबू से भरी हैं कविवर।

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