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शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

९६. मौसम से

कभी गर्मी, कभी बारिश, कभी उमस,
मौसम, अपनी झोली में गहरे हाथ डालो,
कुछ अच्छा-सा हो, तो निकालो.

बहुत खेल ली आँख-मिचौली तुमने,
बहुत कर चुके मनमानी,
अब तो ज़रा रहम खा लो.

वे पुराने सुहाने दिन -
महीनों तक चलनेवाले,
न ज्यादा ठण्ड,न गर्मीवाले,
न बदबूदार पसीनेवाले,
न काँटों-से चुभनेवाले -
एक बार फिर से बुला लो.

दो झोलियाँ हों तुम्हारे पास,
तो फ़ेंक दो यह झोली,
दूसरी झटपट उठा लो.

मौन क्यों हो तुम, मौसम,
कब तक करते रहोगे तंग,
सब कुछ तो दिखा दिया तुमने,
सब को नचा दिया तुमने,
कोई कसर नहीं छोड़ी तुमने,
अब तो पलटी खा लो.

10 टिप्‍पणियां:

  1. कुछ अच्छा-सा हो, तो निकालो.
    ***
    मौसम अपनी झोली खंगाल रहा होगा आपका आह्वान सुनकर!
    सुन्दर!

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  2. मौसम पर ज़ोर जबरदस्ती,उलाहने.... :-)
    भेजी होंगी बहारें उसने आपके रास्ते......

    अनु

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  3. बस कुछ और दिन फिर आपके अनुकूल मौसम होंगे न
    लेकिन कोई और दुहाई मांग रहा होगा
    जिसके पास न कंबल होगा ना सिर पर छत
    गर्मी तो आकाश तले बारिश वृक्ष तले तो काटते होंगे

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  4. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुती।

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  5. मौसम से गज़ब शिकायत ...
    पर उसने कहां सुनी है किसी की ...

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  6. यह और इसके बाद वाली सभी कविताएँ पढ़ीं। यह सबसे अच्छी लगी।

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