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शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

९७. गृहिणी और सिलवटें


दिन भर की थकान के बाद 
जब गृहिणी बिस्तर पर पहुँचती है,
उसे नींद नहीं आती.
आज का अपमान,झिड़कियाँ,
कल की चिंताएं,परेशानियाँ,
उसे सोने नहीं देते.

सुबह उठकर गृहिणी देखती है
अपने हिस्से का बिस्तर 
और उसपर पड़ी सिलवटें.

ये वे सिलवटें नहीं हैं,
जिन्हें देखकर शर्म आती है,
ये वे सिलवटें नहीं हैं,
जिन्हें देखकर लोग 
मन-ही-मन मुस्कराते हैं,
ये बेचैनी की सिलवटें हैं.

हर सुबह गृहिणी 
सिलवटें ठीक करती है,
हर सुबह गृहिणी 
करवटें बदलने का दंड भोगती है,
गृहिणी की हर सुबह एक-सी होती है,
उसकी किसी सुबह में 
कोई नया सूरज नहीं उगता. 

7 टिप्‍पणियां:

  1. ये स्थिति शायद अपने देश की स्त्री की ही है ओर आमने समाज की असम्वेदना को दर्शाती है ... दिल को छूती हुई रचना है ...

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  2. नया सूरज उसको अपने ही दे सकते हैं लेकिन देते हैं अमावस सी कालिमा ।

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  3. उसकी किसी सुबह में
    कोई नया सूरज नहीं उगता.
    ***
    मार्मिक सत्य!

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  4. यथास्थिति वर्णन करती हुई रचना. सुन्दर.

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  5. बहुत खुबसूरत भावमय कविता !!
    लेकिन अब काफी बदलाव आयें हैं ....

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  6. बहुत सार्थक और भावपूर्ण रचना...बहुत सुन्दर

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