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शुक्रवार, 10 मई 2013

८०. मौन

बहुत साल हुए बोझ ढोते,
चलो, अब इसे उतार फेंकें.

भूल जाएँ वह कहासुनी,वे बातें,

जिन पर वक्त की पर्त जमी है,
जो मुश्किल से याद आती हैं,
बड़ी कोशिशों से ताज़ा रह पाती हैं.

तोड़  दें हमारे बीच का मौन,

गिरा दें वह दीवार
जिसका नींव से संपर्क टूट रहा है.

न तुम्हें माफ करने की ज़रूरत है मुझे,

न मुझे माफ करने की ज़रूरत है तुम्हें,
न कोई तर्क चाहिए, न विश्लेषण
कि गलती तुम्हारी थी या मेरी.

कुछ मैं तुमसे कहूँ,कुछ तुम मुझसे,

फिर से डालें आदत संवाद की,
पुराने दिनों में लौटने के लिए 
मौन की आदत बदलना ज़रुरी है.

4 टिप्‍पणियां:

  1. कभी कभी मौन से ज़रूरी संवाद होता है ..... संवाद के जरिये मन में उठी दीवारें ढह जाती हैं .... सुंदर प्रस्तुति

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  2. मौन क्यों आया ... इस बात को भी भूलना जरूरी है ... संवाद जरोरी है दिवारों को गिराने के लिए ..

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  3. पुराने दिनों में लौटने के लिए
    मौन की आदत बदलना ज़रुरी है.

    ....कभी कभी मौन को तोड़ना ज़रूरी है, संवाद से हाथ मिलाने के लिए ...बहुत सुन्दर रचना..

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  4. yun bhi kehte hai ki.. 'baat niklegi to door talak jayegi'..mere khyaal se bhi kehna-sunna jaruri hai... :)

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