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शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

४०. दूध और गृहिणी

भगोने में उबल रहा है दूध,
गृहिणी देख रही है एकटक
अपने अंदर ही अंदर उबलता
अपमान और अनदेखी का गुस्सा.


भगोने पर लगे ढक्कन से
ठहरता नहीं उफनता दूध,
पर गृहिणी का गुस्सा रुका है
शर्म,डर और संस्कार के ढक्कन से.


उफन-उफन के गिर रहा है दूध
किसी विकराल झरने की तरह,
अब तो उसने बुझा भी दी है
चूल्हे में जल रही आग.


गृहिणी सोचती है,
क्या वह भी उफनेगी कभी,
क्या वह भी बुझा सकेगी कभी,
अपमान और अनदेखी की आग
जो जला रही है उसे
न जाने कब से
बिना रुके, लगातार...

9 टिप्‍पणियां:

  1. गहन भाव............
    बेहतरीन कल्पनाशीलता.....
    उत्कृष्ट कृति..

    सादर
    अनु

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  2. गृहिणी सोचती है,
    क्या वह भी उफनेगी कभी,
    क्या वह भी बुझा सकेगी कभी,
    अपमान और अनदेखी की आग
    जो जला रही है उसे
    न जाने कब से
    बिना रुके, लगातार...गहन सोच

    जवाब देंहटाएं
  3. हमारी टिप्पणी???? स्पाम देखिये प्लीस..

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. माफ कीजियेगा| मैंने स्पैम की ओर ध्यान नहीं दिया| आपने इस ओर ध्यान दिलाया. धन्यवाद.

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  4. नारी के उठते भावो लाजबाब प्रस्तुति,,,,

    पोस्ट पर आने के लिए आभार,,,,,

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  5. यही अंतर तो गृहणी को देवी का पद दिलाता है.
    ............ सरल शब्दों में सुन्दर प्रस्तुति

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  6. एक गृहिणी की नज़र से शायद येही सच है .....

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  7. नारी व्यथा का बहुत गहन और सार्थक चित्रण...बहुत सुन्दर

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