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शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

१२.आधा अमरूद

मन फिरे, दिल टूटे,
ख़त्म हुए रिश्ते-नाते.

बँट गई ज़मीन-जायदाद,
अलग हुए बर्तन-भांडे,
संवाद पर लगे ताले,
खिंच गई दीवार आँगन में.

दीवार के इस ओर मैंने
अमरूद का पौधा लगाया,
खाद-पानी डाला,
झाड़-झंखाड़ हटाया,
हवा-तूफ़ान से बचाया,
हरा-भरा पेड़ बनाया.

एक बेशर्म डाली
बिना बताए
चुपके से चली गई
दीवार के उस पार,
उसी पर फला है पहला अमरूद.

मैंने उधर संदेशा भिजवाया है
कि आधा अमरूद इधर भिजवा दें.

7 टिप्‍पणियां:

  1. दीवार के इस और मैंने
    अमरूद का पौधा लगाया,
    खाद-पानी डाला,
    झाड़-झंखाड़ हटाया,
    हवा-तूफ़ान से बचाया,
    हरा-भरा पेड़ बनाया.

    एक बेशर्म डाली बिन बताए
    चुपके से चली गई
    दीवार के उस पार,
    उसी पर फला है पहला अमरूद.

    मैंने उधर संदेशा भिजवाया है
    कि आधा अमरूद इधर भिजवा दें.
    oh !

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  2. हम लकीरें खींचतें हैं... पर प्रकृति नहीं जानती... नहीं मानती ऐसे किसी विभाजन को!
    कितनी सहजता और सुन्दरता से बँटने का दर्द अभिव्यक्त हुआ है इस रचना में....
    विस्मित करती हुई बेहद सुन्दर अभिव्यक्ति!

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  3. भावनाओं का अनूठा संयोजन ... बेहतरीन ।

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  4. बेमिसाल शब्द और लाजवाब भाव...उत्कृष्ट रचना

    नीरज

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  5. बेहतरीन शब्द समायोजन..... भावपूर्ण अभिवयक्ति....

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  6. दीवारें हम खड़ी करते हैं ... प्रकृति नहीं ..सुन्दर प्रस्तुति

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