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शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

७८. सवाल

                   (दिल्ली में ५ साल की बच्ची से बलात्कार की घटना के सन्दर्भ में)

माँ, बड़े अच्छे लगे थे अंकल
जब उन्होंने मुझे टॉफी दी,
बिल्कुल पापा जैसे,
पर जैसे ही कमरा बंद हुआ,
वे तो बिल्कुल बदल गए.

बहुत ज़बरदस्ती की उन्होंने,
मेरे अंदर वे चीज़ें रखीं,
जो तुम आले में रखती हो,
क्या उन्हें चोरी का डर था,माँ?

न जाने क्या-क्या किया उन्होंने,
मुझे मारा-पीटा,मेरा गला दबाया,
बहुत रोई मैं,
पर उनपर असर ही नहीं हुआ,
बहुत याद किया मैंने,
पर तुम आई ही नहीं,
कहाँ रह गई थी तुम, माँ?

कुछ समझ नहीं आया मुझे,
क्या खोज रहे थे वे
और क्यों खोज रहे थे,
क्या चाहते थे वे 
और क्यों चाहते थे,
माँ, मुझे इतना तो बता दो
कि आखिर मेरे साथ हुआ क्या था?

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

७७. दीवार

कब तक चलेगा दोषारोपण,
खुद को सही ठहराने का प्रयास
और एक दूसरे से आस 
कि माफ़ी मांगे गलती के लिए.

उम्र निकल गई इसी तरह,
वरना न तुम चाहते थे दूरी 
न मैं चाहता था मुंह मोड़ना,
दोनों ने चाहा था साथ चलना.

वह दीवार बड़ी कच्ची थी,
जो दोनों के बीच खड़ी थी,
पर हमने ज़ोर ही नहीं लगाया,
खुद-ब-खुद वह गिरती कैसे,
सारी ज़िंदगी उसे सहारा जो दिया.

अब मैं ज़रा जल्दी में हूँ,
मर गया तो तुम्हें कहाँ खोजूंगा,
चलो कह देता हूँ कि गलती मेरी थी 
और यह भी कि तुमने मुझे माफ किया.

शनिवार, 13 अप्रैल 2013

७६. रंग

बड़ी धूमधाम से मनी इस बार होली,
खूब मचा हुड़दंग,
खूब बरसे रंग,
लाल, पीले, नीले,
हरे, गुलाबी, बैगनी,
बड़े पक्के, गहरे रंग,
पर थोड़ा सा साबुन, थोड़ा सा पानी,
छूट गए सब-के-सब चंद दिनों में.

बस एक रंग किसी ने ऐसा डाला, 
जिस पर न साबुन का असर है, न पानी का,
जो दिखता भी नहीं,
जो छूटता भी नहीं,
जो अच्छा भी लगता है,
जो परेशान भी करता है,
जो चैन भी देता है,
जो बेचैन भी करता है.

मैंने तय कर लिया है 
कि अगले साल होली नहीं खेलूंगा. 

शनिवार, 6 अप्रैल 2013

७५. वसंत में पतझड़


पतझड़ ने छीन लिए पेड़ों से पत्ते,
परिंदों से बसेरे, पथिकों से छाया,
मायूसी बिखेर दी बगिया में.

दिनों-दिन गुज़र गए,
बुझने लगी उम्मीद
कि अचानक वसंत आया,
कोंपलें फूटीं,
कोमल हरी पत्तियों ने ढक लिया पेड़ों को,
फूल मुस्करा उठे डालियों पर,
पेड़ों की छाया में पथिकों ने
फिर विश्राम किया,
फिर छाईं खुशियाँ,
फिर जगा विश्वास,
फिर खिलीं उम्मीदें.

कुछ पेड़ फिर भी उदास रहे,
उलझे रहे अतीत में,
आकलन करते रहे नुकसान का,
जो पतझड़ में उन्हें हुआ था.

वसंत आया,
पर वे बेखबर रहे,
उन पेड़ों पर न पत्तियां आईं, न फूल,
उनको न पथिकों ने पूछा, न परिंदों ने,
वे ठूंठ के ठूंठ बने रहे,
वसंत में भी पतझड़ झेलते रहे.

शुक्रवार, 29 मार्च 2013

७४. चिड़िया से


चिड़िया, जब तुम आसमान में उड़ती हो,
तुम्हारे मन में क्या चल रहा होता है?

तुम मस्ती में उड़ी चली जाती हो,
या कि सोचती हो, कहीं बादलों में फंस न जाओ,
कि सूरज के ताप से झुलस न जाओ,
कि कहीं तुम्हारे पंख जवाब न दे दें?

तुम्हें उन चूज़ों की चिंता तो नहीं सताती,
जो घोंसले में तुम्हारा इंतज़ार कर रहे होते हैं,
कि उनके लिए दानों का इंतज़ाम होगा या नहीं,
कि कहीं तूफ़ान में घोंसला गिर तो नहीं जाएगा?

उड़ते समय तुम्हारे मन में डर तो नहीं होता
कि लौटने पर तुम्हारे बच्चे सलामत मिलेंगे या नहीं,
कि तुम खुद किसी बहेलिए के निशाने पर तो नहीं,
जो तुम्हारी ताक में कहीं छिपा बैठा हो?

उड़ते समय तुम्हारे मन में क्या चल रहा होता है,
चिड़िया, मौत से पहले भी क्या तुम मरती हो?