बड़ी सुहानी सुबह है आज,
रज़ाई थोड़ी कुनकुनी सी है,
अभी अभी खुली है नींद,
पर आज नहीं बजा अलार्म।
पंछी चहचहा रहे हैं कहीं,
आवाज़ लगा रहा है दूधवाला,
कमरे में बिखरने को बेताब है
मोटे परदे के पार की धूप।
उबल रही है चाय पतीले में,
ख़ुशबू फैल रही है घर भर में,
रबर से बंधा पड़ा है अख़बार,
बाल्टी भर रही है गुसलखाने में।
यहीं कहीं पड़ा होगा ब्रीफ़केस,
बिख़रे होंगे टिफिन के डिब्बे,
कोई डर नहीं है आज मुझे
किसी बायोमिट्रिक मशीन का।
रज़ाई थोड़ी कुनकुनी सी है,
अभी अभी खुली है नींद,
पर आज नहीं बजा अलार्म।
पंछी चहचहा रहे हैं कहीं,
आवाज़ लगा रहा है दूधवाला,
कमरे में बिखरने को बेताब है
मोटे परदे के पार की धूप।
उबल रही है चाय पतीले में,
ख़ुशबू फैल रही है घर भर में,
रबर से बंधा पड़ा है अख़बार,
बाल्टी भर रही है गुसलखाने में।
यहीं कहीं पड़ा होगा ब्रीफ़केस,
बिख़रे होंगे टिफिन के डिब्बे,
कोई डर नहीं है आज मुझे
किसी बायोमिट्रिक मशीन का।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (04-02-2019) को चलते रहो (चर्चा अंक-3237) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 03/02/2019 की बुलेटिन, " मजबूत रिश्ते और कड़क चाय - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंसुंदर अभिव्यक्ति
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