अपने आप से बात करता
वह बूढ़ा बड़ा अजीब लगता है,
बेपरवाह, बेख़बर,
बस चलता जा रहा है
अपनी ही धुन में,
ख़ुद से ही बतियाता.
एक वह भी वक़्त था,
जब घिरा रहता था वह
चाहनेवालों से,
पर अब कोई नहीं,
न कोई दोस्त,
न कोई अपना,
किसी के काम का नहीं,
अब निपट अकेला है वह.
बूढ़ा मजबूर है,
जिससे कोई बात न करे,
वह ख़ुद से बात न करे,
तो और क्या करे?
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (23-07-2017) को "शंखनाद करो कृष्ण" (चर्चा अंक 2675) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
मर्मस्पर्शी आपकी रचना ओंकार जी, वृद्ध हृदय की व्यथा का चित्रण। सुंदर
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 23 जुलाई 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबुढापे में आज कल सबका यही हाल है ..
जवाब देंहटाएंउम्र के पढाव को बाखूबी लिखा है ...
जवाब देंहटाएंकितने सरल शब्दों में वृद्धावस्था की सबसे बड़ी समस्या को उभार दिया आपने ! मैं कभी कभी अपने कॉलेज की छात्राओं को वृद्धाश्रम ले जाती हूँ । उन्हें हम कुछ देना चाहें तो लेते नहीं,कहते हैं सिर्फ मिलने आते रहा करो....
जवाब देंहटाएंबूढ़ों को कौन पूछता है आजकल..।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्इ अभिव्यक्ति...
सुन्दर।
जवाब देंहटाएंबिलकुल बुढ़ापे में अक्सर ऐसा देखा गया है
जवाब देंहटाएंवृद्धावस्था की स्थिति पर कोमल भावपूर्ण अभिव्यक्ति...
सत्य का अनावरण करती आपकी बहुत ही भावनात्मक रचना आभार ''एकलव्य ''
जवाब देंहटाएंबुज़ुर्गों की उपेक्षा आज का जलता हुआ सवाल है। समाज को बुढ़ापे के प्रति संवेदनशील बनाना ज़रूरी है। उम्र के इस पड़ाव से उसे भी गुज़रना है जो आज जवानी के मद में डूबकर बुढ़ापे को हेय या हिक़ारत की दृष्टि से देखता है।
जवाब देंहटाएंबहुत प्रभावी एवं प्रेरक रचना। बधाई।
bahut khhob behtareen rachna
जवाब देंहटाएंआदरणीय ओंकार जी - ये जीवन का भयावह चित्र है | आँखें नम कर देने वाली रचना पढ़कर निशब्द हूँ !!!! ऐसे प्रसंग समाज में कहीं भी और कभी भी देख सकते हैं | जो कभी परिवार को पोषित कर परिवार का केंद्र हुआ करते थे ऐसे बुजुर्ग अनायास जब इतने अकेले पड़ जाते हैं कि लोई इनसे बात करना नहीं चाहता तो वे अपनी बाते खुद से ही दुहराते नजर आते है | भौतिकता की भूख और चकाचौंध ने समाज को निर्लेप और निष्ठुर बना दिया है | इस भावपूर्ण रचना पर आपको मेरी शुभ कामना मिले --
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