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शनिवार, 14 जनवरी 2017

२४३. जाड़े की धूप


दिसम्बर की कंपकंपाती ठण्ड में,
जब निकलता है सूरज,
तो आ जाती है जान में जान,
बहुत सुहाता  है अकड़े बदन पर 
धूप का स्पर्श,
शायद यही होता है स्वर्ग.

शिव, अपना तीसरा नेत्र खोलो,
तो कुछ ऐसे देखना 
कि जल जाय एक-एक कर सब कुछ,
पर बची रह जाय आख़िर तक 
जाड़े की यह गुनगुनी धूप.

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 17 जनवरी 2017 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. सच में ! जाड़ेे में धूप से बढ़ कर सुखदाई कुछ भी नहीं!

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  3. बहुत सुहाता है अकड़े बदन पर
    धूप का स्पर्श,
    शायद यही होता है स्वर्ग. ... bahut sahi aur sundar baat

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  4. आमीन ... जाड़े की धूप यूँ ही बनी रहे ...

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  5. सुन्दर शब्द रचना
    http://savanxxx.blogspot.in

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  6. वाह ! शंकर भगवान का तीसरा नेत्र न हुआ, रूम हीटर हो गया.

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