२४३. जाड़े की धूप
दिसम्बर की कंपकंपाती ठण्ड में,
जब निकलता है सूरज,
तो आ जाती है जान में जान,
बहुत सुहाता है अकड़े बदन पर
धूप का स्पर्श,
शायद यही होता है स्वर्ग.
शिव, अपना तीसरा नेत्र खोलो,
तो कुछ ऐसे देखना
कि जल जाय एक-एक कर सब कुछ,
पर बची रह जाय आख़िर तक
जाड़े की यह गुनगुनी धूप.
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 17 जनवरी 2017 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसच में ! जाड़ेे में धूप से बढ़ कर सुखदाई कुछ भी नहीं!
जवाब देंहटाएंबहुत सुहाता है अकड़े बदन पर
जवाब देंहटाएंधूप का स्पर्श,
शायद यही होता है स्वर्ग. ... bahut sahi aur sundar baat
आमीन ... जाड़े की धूप यूँ ही बनी रहे ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर शब्द रचना
जवाब देंहटाएंhttp://savanxxx.blogspot.in
वाह ! शंकर भगवान का तीसरा नेत्र न हुआ, रूम हीटर हो गया.
जवाब देंहटाएं