बूँद, अब तो समझ जाओ,
बेकार की ज़िद छोड़ो,
वह आस छोड़ो
जो पूरी नहीं हो सकती.
आसमान से तुम सीधे
ज़मीन पर नहीं
पत्ते पर गिरी,
यह तुम्हारी नियति थी,
पर तुम्हें हमेशा
पत्ते पर नहीं रहना है.
याद करो वह समय,
जब तुम पत्ते के
ऊपरी छोर पर थी,
अब फिसलते-फिसलते
उसकी नोक पर आ पहुंची हो,
बस कुछ पल और,
तुम मिट्टी में मिल जाओगी.
जिस पत्ते पर तुमने
आश्रय लिया है,
जिस टहनी पर
पत्ते ने आश्रय लिया है,
जिस पेड़ पर
टहनी ने आश्रय लिया है,
सब गिर जाएंगे,
मिट्टी में मिल जाएंगे.
दुःख न करो,
हँसते-हँसते गिर जाओ,
मिट्टी में मिल जाओ,
बूँद, सच को स्वीकार करो.
जय मां हाटेशवरी....
जवाब देंहटाएंआप ने लिखा...
कुठ लोगों ने ही पढ़ा...
हमारा प्रयास है कि इसे सभी पढ़े...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना....
दिनांक 23/11/2015 को रचना के महत्वपूर्ण अंश के साथ....
चर्चा मंच[कुलदीप ठाकुर द्वारा प्रस्तुत चर्चा] पर... लिंक की जा रही है...
इस चर्चा में आप भी सादर आमंत्रित हैं...
टिप्पणियों के माध्यम से आप के सुझावों का स्वागत है....
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
कुलदीप ठाकुर...
प्रगतिशील विचारधारा |
जवाब देंहटाएंयही जीवन, यही जीवन चक्र. बहुत उम्दा प्रस्तुति, बधाई.
जवाब देंहटाएंहर चीज़ का अन्त होना ही हैं
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता
http://savanxxx.blogspot.in
सुंदर !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर.
जवाब देंहटाएंहम सब भी तो बूंद ही हैं, गिरना ही है सब की नियति। बहुत सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंZaroor sun legi aapki baat ye boond...Yahi iske paas sabse achchha uplabdh raasta hai ! Sundar.
जवाब देंहटाएंयथार्थ ...
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