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शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

१८४. प्रेम

लोगों को मेरी प्रेम कविताएँ पसंद नहीं,
पर मुझे हमेशा लगता है 
कि मैं प्रेम कविताओं का कवि हूँ. 

मुझे अपनी कविताएँ अच्छी लगती हैं,
जब वे प्रेम के बारे में होती हैं,
पर मैं यह नहीं समझ पाता 
कि जो चीज़ मुझमें है ही नहीं,
वह मेरी कविताओं में कैसे आ जाती है 
और वह भी इतने असरदार तरीक़े से. 

अगर कोई मुझे बता दे 
कि अपनी कविताओं का प्रेम 
मैं अपने स्वभाव में कैसे लाऊँ, 
तो मैं इस बात के लिए तैयार हूँ 
कि फिर कभी प्रेम कविताएँ नहीं लिखूँ. 

7 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (26-09-2015) को "सवेरा हो गया-गणपति बप्पा मोरिया" (चर्चा अंक-2110) (चर्चा अंक-2109) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. प्रेम का स्वरुप अनंत हैं, जिसे कोई परिभाषित नहीं कर सकता...
    लिखते रहो... प्रेम अंतरात्मा की आवाज है

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  3. प्रेम किसे अच्छा नहीं लगता..सदैव छुपा होता है अंतस के किसी कोने में...बहुत सुन्दर रचना...

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  4. बहुत खूब ... ये बात भी स्वयं ही लानी होगी अपने अन्दर ...

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  5. बहुत सुंदर । कभी कभी मन के अंदर जो होता है वो हम नहीं पर हमारी कलम ढूढ़ लेती है ।

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