कविता, आजकल मैं उदास हूँ,
बहुत दिन बीत गए,
पर तुम आई ही नहीं.
तुम्हें याद हैं न वे दिन,
जब तुम कभी भी आ जाती थी -
मुंह-अँधेरे, दोपहर, शाम - कभी भी,
मुझे सोते से भी उठा देती थी,
जब सारे ज़रुरी काम छोड़कर
मुझे तुम्हारा साथ देना पड़ता था,
वरना तुम रूठ जाती थी,
मुझे भी तो बहुत भाता था
सब कुछ भूल कर तुम्हारे साथ हो लेना.
देखो, आज फिर से
मैं कलम-क़ागज़ लेकर तैयार हूँ,
भूल भी जाओ गिले-शिकवे,
पहले की तरह एक बार फिर
मेरे पास दौड़ी चली आओ.
मेरी उदासी दूर करो, कविता,
तुम्हें पुराने दिनों का वास्ता.
बहुत दिन बीत गए,
पर तुम आई ही नहीं.
तुम्हें याद हैं न वे दिन,
जब तुम कभी भी आ जाती थी -
मुंह-अँधेरे, दोपहर, शाम - कभी भी,
मुझे सोते से भी उठा देती थी,
जब सारे ज़रुरी काम छोड़कर
मुझे तुम्हारा साथ देना पड़ता था,
वरना तुम रूठ जाती थी,
मुझे भी तो बहुत भाता था
सब कुछ भूल कर तुम्हारे साथ हो लेना.
देखो, आज फिर से
मैं कलम-क़ागज़ लेकर तैयार हूँ,
भूल भी जाओ गिले-शिकवे,
पहले की तरह एक बार फिर
मेरे पास दौड़ी चली आओ.
मेरी उदासी दूर करो, कविता,
तुम्हें पुराने दिनों का वास्ता.
आखिर दिल की बात समझती है कविता ..
जवाब देंहटाएं..बहुत बढ़िया ..
सुंदर ..............
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना.......
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंकविता रूठ जाती है कभी ... समझ नहीं आता क्यों ...
जवाब देंहटाएंलाजवाब भाव लिए शब्द ...
मुझे तुम्हारा साथ देना पड़ता था,
जवाब देंहटाएंवरना तुम रूठ जाती थी,
मुझे भी तो बहुत भाता था
सब कुछ भूल कर तुम्हारे साथ हो लेना.
प्रिय ओंकार जी
स्नेहिल संसार के सुन्दर जज्बात ...मन को रमने वाला
बधाई
भ्रमर ५
kavita ne suna tabhi to kagaz par utar aayee hai
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंसच, कविता भी कभी कभी रूठ जाती है. सुन्दर भाव, बधाई.
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