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शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

११७. सुबह-सुबह




सूरज निकलने के ठीक पहले 
कितना अच्छा लगता है सब कुछ!

चहचहाने लगते हैं 
घोंसलों से निकलकर परिंदे ,
रात भर की नींद से जागकर 
कुनमुनाने लगते हैं बच्चे,
दिन के पहले आलिंगन को 
बेताब हो उठते हैं नए जोड़े.

खेतों में निकल पड़ते हैं किसान,
सैर को निकल पड़ते हैं बूढ़े,
गूँज उठती हैं तरह-तरह की आवाजें,
फिर से जी उठता है जीवन.

सिन्दूरी हो जाता है 
आसमान का एक कोना,
जैसे किसी ने उसके माथे पर 
लाल टीका लगा दिया हो.

ऐसे में मुझे डराती है 
अनिष्ट की आशंका,
ऐसे में मेरा मन करता है 
कि आकाश के दूसरे कोने पर 
एक काला टीका लगा दूं.

10 टिप्‍पणियां:

  1. वाह......बेहद खूबसूरत!!!!
    शायद ये मेरी पसंदीदा कविता बन जाय.

    सादर
    अनु

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  2. बहुत गहरा एहसास ... नज़र अक्सर लग जाती है खुशनुमा माहोल को ..

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  3. भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने...

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  4. निशंक इंसान रह ही नहीं पता .....
    खूबसूरत अभिव्यक्ति

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  5. बहुत सुन्दर और मनमोहक शब्द चित्र....

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