मेरे घर की दहलीज़,
कितनी बार कहा तुझसे
कि जब मैं बाहर से आऊं
तो जूतों के साथ
उतरवा लिया करो
मुझसे मेरा मैं भी.
बहुत ढीठ है यह मैं,
हमेशा लगा रहता है साथ,
दफ्तर में, बाज़ार में,
बस में, रास्ते में,
हर जगह...
कम से कम घर में तो छोड़ दे
मुझे मेरे हाल पर,
पड़ा रहे जूतों के साथ
दहलीज़ के बाहर,
पर नहीं, यह बेशर्म
घुस आता है मुंह उठाए
मेरे साथ मेरे घर में.
इस मैं के साथ
मैं मैं नहीं रहता,
घर चाहे जो भी हो
घर नहीं रहता.
कितनी बार कहा तुझसे
कि जब मैं बाहर से आऊं
तो जूतों के साथ
उतरवा लिया करो
मुझसे मेरा मैं भी.
बहुत ढीठ है यह मैं,
हमेशा लगा रहता है साथ,
दफ्तर में, बाज़ार में,
बस में, रास्ते में,
हर जगह...
कम से कम घर में तो छोड़ दे
मुझे मेरे हाल पर,
पड़ा रहे जूतों के साथ
दहलीज़ के बाहर,
पर नहीं, यह बेशर्म
घुस आता है मुंह उठाए
मेरे साथ मेरे घर में.
इस मैं के साथ
मैं मैं नहीं रहता,
घर चाहे जो भी हो
घर नहीं रहता.
मैं जहाँ भी साथ होगा
जवाब देंहटाएंवह जगह बेगाना ही होगा
घर हो या बाहर
मैं को कोई नहीं पसंद करता
सामनेवाले को भी मैं बनना पड़ता है
और वहीँ सबकुछ मटियामेट
बड़ा कठिन हैं मैं को छोड़ पाना.....
जवाब देंहटाएंबेहद गहन भाव...
सादर
अनु
मैं से ही तो मुलाकात नहीं हो पाती है....बढ़िया रचना
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