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गुरुवार, 26 जनवरी 2012

१९. इंसान 

मेरे गम में वह रोया,
मेरी खुशी में मुस्कराया,
जब लगी चोट 
तो मरहम लगाया.

गिरने से बचाया उसने 
जब-जब मैं लडखडाया,
मैं कभी गिरा तो
उसने बढ़कर उठाया.

घर से निकला तो 
फूल बिछाए उसने,
चुन-चुन कर हटाये उसने 
कांटे और कंकर.

वह मेरा कोई न था,
न मेरे घर का,
न पड़ोस का,
न ही कोई दोस्त,
दूर का रिश्तेदार भी नहीं.

मैंने पूछा, 'इतना सब किसलिए?'
उसने कहा,'क्योंकि मैं भी इन्सान हूँ.'

8 टिप्‍पणियां:

  1. अभी भी इंसानियत बची हुई है ... अच्छी रचना

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  2. बहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति.........

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  3. बहुत खूब! आज इसी इंसानियत की ही तो ज़रूरत है...

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  4. वाह! काश.. सभी को सोच इतनी रचनात्मक हो जाय।

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  5. sach insan hi insan ke kaam aata hai..nate rishtedaar to ham banate hain...
    bahut sundar chintanbodh karati rachna..

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  6. उसने कहा क्योंकि मैं भी इन्सान हूँ
    बहुत सुंदर प्रस्तुति

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