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शनिवार, 19 नवंबर 2011

११. अनछपी कविताएँ

देखो, जब मैं मरूं,
मेरी अनछपी कविताएँ
मेरी चिता पर रख देना,
पर ध्यान रहे,
वे मेरे साथ जल न जाएँ;
हवाएं जब उड़ायें मेरी राख,
देखना, वे बिखर न जाएँ.

मेरी अस्थियों का हो विसर्जन,
तो साथ हों मेरी अनछपी कविताएँ,
पर देखना, कहीं वे गल न जाएँ.

बहुत प्रिय हैं मुझे
अपनी तिरस्कृत कविताएँ,
नहीं सह पाऊंगा मैं
उनका और अपमान अपने बाद
और न ही उनका अंत.

11 टिप्‍पणियां:

  1. रचना कोई भी हो... कविता कोई भी हो, हमेशा सम्मानीय है!
    कवि के मनोभावों को खूब व्यक्त करती है यह कविता... रचनाकार की वेदना की अप्रतिम अभिव्यक्ति!

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  2. बहुत प्रिय हैं मुझे
    अपनी तिरस्कृत कविताएँ,
    नहीं सह पाऊंगा मैं
    उनका और अपमान अपने बाद
    और न ही उनका अंत... sachchiii nihshabd ker diya aapne ...

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  3. सुन्दर शब्द और अद्भुत भाव लिए अप्रतिम रचना ...बधाई


    नीरज

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  4. अपनी हर रचना अपनी अनमोल निधि सी ही लगती है ...
    भावमय प्रस्तुति !

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  5. वाह!!!
    कवि का दर्द झलक आया..
    बहुत सुन्दर..

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  6. mujhe bhi bahut priya hai apni kavitaye :) bahut sundar rachna

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  7. बिलकुल सही बहुत सी अनछपी कविताएं है... जिन्हें शब्द भी नही मिले है.....

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