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शनिवार, 12 नवंबर 2011

१०.फिर छूट गया

कुछ नहीं छूटा इस बार दिवाली में-
पटाखे-फुलझड़ियाँ,
खील-बताशे,
फूल-पत्तियां,
रंगोली-दिये,
मिठाइयाँ-नमकीन,
पूजा-अर्चना,
यहाँ तक कि
दोस्तों के साथ पत्तेबाज़ी.

नंबर ढूंढें,
एस.एम.एस. किये सैकड़ों,
पता कर-कर के भेजे,
कार्ड और तोहफे.

सबको सिलवाए कपड़े,
सबको कराई खरीदारी,
सबको दिखाई आतिशबाजी,
पड़ोसियों को गले लगाया.

कुछ नहीं छूटा इस बार दिवाली में,
बस फिर से छूट गया
वही नुक्कड़ वाला घर,
क्योंकि इस बार भी वहां अँधेरा था.

10 टिप्‍पणियां:

  1. जो छूट जाता है उसका ग़म बहुत सालता है...बहुत अच्छी रचना...बधाई स्वीकारें
    नीरज

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  2. कुछ नहीं छूटा इस बार दिवाली में,
    बस फिर से छूट गया
    वही नुक्कड़ वाला घर,
    क्योंकि इस बार भी वहां अँधेरा था.bahut marm hai

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  3. हमारी चेतना घर की चौखट के बाहर भी एक दीया जलाये तभी वह नुक्कड़ वाला घर भी रौशन होगा!

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  4. संवेदनशील अभिव्यक्ति ..पर क्यों छूट गया नुक्कड़ वाला घर ?

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  5. कल 14/11/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  6. मर्म को स्पर्श करती रचना...
    सादर...

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  7. ये नुक्कड वाला घर, दिल के उस अंधेरे कोने का प्रतीक लग रहा है , जो बरसों पहले कभी आबाद हुआ था , मगर अब उस वीरनें में किसी को उजाला बना कर लाने की इच्छा भी नही बची .....

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  8. संवेदना के भाव लिए पंक्तियाँ..... हृदयस्पर्शी रचना

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  9. छूटने का एहसास रोशनी की उम्मीद जगाता है।

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