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मंगलवार, 2 दिसंबर 2025

826. एक ग़ज़ल

 



क़लम नहीं रही अब भरोसे के लायक़,

बीच ग़ज़ल स्याही जम सी गई है।


मै भी नहीं पहले सा, वह भी नहीं पहले सी,

दूरियाँ मगर कुछ कम सी गई हैं।


मिली थी मुझसे, तो फुलझड़ी थी वो,

छोड़कर गई है, तो बम सी गई है।


नज़र जब से आने लगी है मंज़िल,

रफ़्तार चलने की थम सी गई है।


वैसे तो दिक़्क़तें कुछ कम नहीं यहाँ,

तबीयत यहीं पर रम सी गई है।