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बुधवार, 24 जुलाई 2024

७७७. तुम याद आती हो

 


तुम याद आती हो,

जैसे आते हैं

लू के मौसम में बादल, 

जैसे आती हैं 

सावन के मौसम में फुहारें,

जैसे वसंत में आती है 

बाग़ों में ख़ुश्बू,

जैसे किसी ठूँठ पर 

बैठती है चिड़िया,

जैसे आता है 

सूखी नदी में पानी. 


तुम याद आती हो,

तो देर तक ठहरती हो, 

जैसे लम्बी उड़ान के बाद 

घोंसले में लौटते हैं परिंदे,

जैसे गहराता है अँधेरा 

सूरज डूबने के बाद. 


तुम याद आती हो,

तो रुक जाते हैं सारे काम,

तुम याद आती हो,

तो ऐसे आती हो,

जैसे आते हैं 

भूकंप के झटके. 



4 टिप्‍पणियां:

  1. अति सुंदर भावपूर्ण रचना सर।
    सादर।
    -----
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २५ जुलाई २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण सृजन ।

    जवाब देंहटाएं