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बुधवार, 12 जनवरी 2022

६३३. हमसफ़र



मैं निकला था मंज़िल की ओर,

तुम भी उसी ट्रेन में चढ़ी,

डिब्बा वही था, बर्थ भी वही,

हम साथ-साथ बैठे रहे,

ट्रेन भी चलती रही,

हमसफ़र बन गए हम दोनों. 


मैंने कहा, मैं वहीं उतर जाऊंगा,

जहाँ तुम्हें उतरना है,

तुम भी ख़ुश थी मेरे फ़ैसले से. 


अचानक ऐसा क्या हुआ 

कि तुम्हारी कोई मंज़िल ही नहीं रही,

अब तुम तैयार हो 

किसी भी उस जगह उतरने को,

जहाँ मुझे नहीं उतरना है. 


साथ-साथ बैठे-बैठे 

अचानक ऐसा क्या हो जाता है 

कि एक ही जगह उतरनेवाले 

अपना स्टेशन बदल लेते हैं. 

 

7 टिप्‍पणियां:

  1. असल में मंज़िल किसी को नहीं पता । बस अचानक ज़िन्दगी की गाड़ी उतार देती है और गंतव्य आ जाता है । हमसफर में से एक का सफर पहले पूरा हो जाता है ।।

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  2. हृदयस्पर्शी भाव लिए सुन्दर सृजन ।

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  3. साथ-साथ बैठे-बैठे
    अचानक ऐसा क्या हो जाता है
    कि एक ही जगह उतरनेवाले
    अपना स्टेशन बदल लेते हैं.
    खूबसूरत अभिव्यक्ति!
    अक्सर ऐसा ही होता है जिनकी राहें, मंजिल एक होती है वह कब अलग हो जाती है पता ही नहीं चलता और कारण ढूढ़ते ढूढ़ते जिंदगी भी गुजर जाती है पर कारण कभी पता नहीं चलता!

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  4. हर कोई अकेला ही आया है और अकेला ही जाने वाला है, दो घड़ी का साथ मिल जाता है और राह थोड़ी आसान हो जाती है

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  5. शायद हमसफर जीवन के सफर में मिलने वाले एक साथी का नाम है जिसके सफर का आनन्द ही आनन्द साथ रहता है तो जिसको खोकर जीवन का सफर सफर नहीं एक नीरस यात्रा मात्र रह जाती होगी।

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  6. We are strange humanity. We don't have any destination. We say it but can't hold the destination.
    It really make me little sad. Thanks dear

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  7. This is not just a poem. It's my life history written here. I am sad after reading this. Thank you dear.
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