३३८.भँवर
मैंने खुला छोड़ रखा है
अपने घर का दरवाज़ा,
इस उम्मीद में
कि शायद भूला-भटका
कोई दोस्त आ जाय
या कोई अति उत्साही
दुश्मन ही घुस आय.
दोस्त या दुश्मन न सही,
कोई चोर ही सही,
मेरे नीरस एकाकी जीवन में
कुछ तो चहल-पहल हो,
इस ठहरे सरोवर में
कोई लहर न सही,
कोई भँवर ही उठे.
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 23 दिसम्बर 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंवाह !!! आजकल महानगरों में एकाकी जीवन की त्रासदी को अत्यंत कम, किंतु अत्यंत प्रभावपूर्ण शब्दों में व्यक्त कर दिया आपने।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब..आदरणीय
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंलहर नही कोई भंवर ही उठे....
नीरस एकाकी जीवन में कोई लहर तो आनी चाहिए.....बहुत सुन्दर..
जवाब देंहटाएंअकेलेपन में साहचार्य के अकाल से ग्रस्त मनोभाव।
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