बंद खिड़की की झिर्री से
झाँक रही है तुम्हारी
सहमी-सहमी सी हँसी।
तुम्हारी हँसी, हँसी कम
रुलाई ज़्यादा लगती है,
इससे तो बेहतर था,
तुम थोड़ा रो ही लेती।
हँसना ही है,
तो खोल दो खिड़की,
खोल दो किवाड़,
तोड़ दो ताले,
लाँघ लो देहरी,
फिर पूरे मन से
बिना डर, बिना झिझक,
दिन-दहाड़े,
खुल कर हँसो।
हँसना ही है, तो ऐसे हँसो
कि वे भी निकल आएं दबड़ों से,
जो लंबे अरसे से
हँसना भूल गए हैं।
झाँक रही है तुम्हारी
सहमी-सहमी सी हँसी।
तुम्हारी हँसी, हँसी कम
रुलाई ज़्यादा लगती है,
इससे तो बेहतर था,
तुम थोड़ा रो ही लेती।
हँसना ही है,
तो खोल दो खिड़की,
खोल दो किवाड़,
तोड़ दो ताले,
लाँघ लो देहरी,
फिर पूरे मन से
बिना डर, बिना झिझक,
दिन-दहाड़े,
खुल कर हँसो।
हँसना ही है, तो ऐसे हँसो
कि वे भी निकल आएं दबड़ों से,
जो लंबे अरसे से
हँसना भूल गए हैं।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (17-12-2018) को "हमेशा काँव काँव" (चर्चा अंक-3188) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
वाहहह बहुत खूब ओंकार जी सुंदर कविता👌
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ...
जवाब देंहटाएंहंसो तो भी दहाड़ें मारो ... शायद कोई हंस से ...
गागर में सागर।
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