नाच रही हैं कठपुतलियाँ
करोड़ों-अरबों एक साथ,
दिखती नहीं कोई डोर,
दिखता नहीं नचानेवाला.
ख़ुद को दर्शक समझनेवाले भी
कोई और नहीं, कठपुतलियाँ ही हैं,
जो कभी खुश हो लेती हैं,
कभी दुःखी हो लेती हैं,
दूसरी कठपुतलियों को देखकर.
अपनी ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता,
पता ही नहीं चलता उन्हें
कि वे भी कठपुतलियाँ ही हैं
और दूसरी कठपुतलियाँ
उनका नृत्य देख रही हैं.
तमाशे के बीच नचानेवाला
खींच लेता है कोई डोर,
उठा लेता है कोई कठपुतली,
उतार देता है एक नई कठपुतली
मंच पर नाचने के लिए.
इसी तरह अनवरत चलता रहता है
कठपुतलियों का रहस्यमय नाच,
कोई नहीं जान पाता
कि जो इन्हें नचाता है,
आख़िर क्यों नचाता है.
जय मां हाटेशवरी...
जवाब देंहटाएंआपने लिखा...
कुछ लोगों ने ही पढ़ा...
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये दिनांक 10/04/2016 को आप की इस रचना का लिंक होगा...
चर्चा मंच[कुलदीप ठाकुर द्वारा प्रस्तुत चर्चा] पर...
आप भी आयेगा....
धन्यवाद...
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " राजनीति का नेगेटिव - पॉज़िटिव " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंजी सच है इन्सान कठपुतली ही है । बहुत सुंदर ।
जवाब देंहटाएंसबकी डोर ऊपर वाले के पास ...
जवाब देंहटाएंइसे लगता है अपने आप नाच रही है ृडोर पकड़े है कोई और !
जवाब देंहटाएंसच है , हम सब कठपुतली हैं , अच्छी कविता बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंयही तो खासियत है अपने अलावा सब दूजे को कठपुतली समझते हैं यहाँ ...
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