शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017

२९१. नए साल से


नए साल,
मैंने पलकें बिछा दी हैं 
तुम्हारे स्वागत में,
तैयारी कर ली है जश्न की;
इंतज़ाम कर लिया है 
थोड़ी-सी आतिशबाजी,
थोड़े से संगीत का;
फैसला कर लिया है 
कि दिसंबर की सर्दी में
आधी रात तक जागकर
तुम्हारे आने का इंतज़ार करूंगा ;
ख़ुशी से चीखूंगा,
नाचूँगा, सीटियाँ बजाऊँगा,
जैसे ही तुम पहुँचोगे.

नए साल,
मान रखना मेरे स्वागत का,
टूटने न देना मेरी उम्मीदों को,
मेरे साथ रहना, मेरे बनकर,
गुज़र जाने देना मुझे ख़ुद में से,
जैसे पानी में से मछली.

कोई लम्बा कमिटमेंट नहीं,
बस तीन सौ पैंसठ दिन की बात है.

शनिवार, 23 दिसंबर 2017

२९०. ज़िम्मेदारी

वह जो भी है,
उसका श्रेय या दोष 
उन्हें दो,
जिन्होंने उसे बनाया है. 

उसके माता-पिता,
उसका परिवार,
उसके गुरु,
उसके मित्र 
और वे अनगिनत लोग,
जो उससे जुड़े.

ईंट-ईंट जुड़कर 
सीमेंट-सरिया मिलकर 
इमारत बनती है.

अगर वह सिर उठाए 
बुलंद खड़ी रहे,
तो श्रेय इमारत को नहीं,
हर उस हाथ को है,
जिसने उसमें ईंट रखी,
सीमेंट-सरिया मिलाया.

और अगर इमारत 
भरभराकर गिर जाय,
तो तबाही की ज़िम्मेदारी 
वही लोग लें,
जिन्होंने उसे बनाया था.

शुक्रवार, 15 दिसंबर 2017

२८९. राक्षस

कभी अपने अन्दर का 
राक्षस देखना हो,
तो उग्र भीड़ में 
शामिल हो जाना.

जब भीड़ से निकलो,
तो सोचना 
कि जिसने पत्थर फेंके थे,
आगजनी की थी,
तोड़-फोड़ की थी,
बेगुनाहों पर जुल्म किया था,
जिसमें न प्यार था, न ममता,
न इंसानियत थी, न करुणा,
जो बिना वज़ह 
पागलों-सी हरकतें कर रहा था,
वह कौन था?

उसे जान लो,
अच्छी तरह पहचान लो,
देखो, तुम्हें पता ही नहीं था 
कि वह तुम्हारे अन्दर ही 
कहीं छिपा बैठा है.

शुक्रवार, 8 दिसंबर 2017

२८८. स्टेशन

मैं चुपचाप जा रहा था ट्रेन से,
न जाने तुम कहाँ से चढ़ी 
मेरे ही डिब्बे में
और आकर बैठ गई 
मेरे ही बराबरवाली सीट पर.

धीरे-धीरे बातें शुरू हुईं 
और बातों ही बातों में 
हमने तय कर लिया 
कि हम एक ही स्टेशन पर उतरेंगें,
वह स्टेशन कोई भी क्यों न हो.

पर छोटे-से सफ़र में 
न जाने क्या गड़बड़ हुई, 
तुमने कह दिया
कि ऐसे किसी भी स्टेशन पर 
तुम उतर जाओगी,
जहाँ मैं नहीं उतरूंगा.

मैंने भी सोच लिया है 
कि ऐसे किसी भी स्टेशन पर 
मैं उतर जाऊंगा,
जहाँ तुम उतरोगी.

क्या कोई ऐसा भी स्टेशन है,
जहाँ से ट्रेन 
न आगे जाती हो,
न पीछे लौटती हो?

अगर है, तो आओ हम दोनों 
उसी स्टेशन पर उतर जाएं.

शनिवार, 2 दिसंबर 2017

२८७. आखिरी खनक

अभी-अभी सुनी है मैंने 
तुम्हारे गेहुएं पांवों में बंधी 
पायल की आखिरी खनक.

काश कि मैं जवान होता,
कान थोड़े ठीक होते,
तो कुछ देर तक सुन पाता
तुम्हारी पायल की खनक.

मैंने महसूस किया है फ़र्क 
तुम्हारे आनेवाले पांवों और 
लौटनेवाले पांवों में बंधी 
पायल की खनक में.

लौटनेवाले पांवों में बंधी 
पायल की खनक ऐसी,
जैसे कोई बीमार 
अस्पताल के बिस्तर पर पड़ा 
अंतिम सांसें ले रहा हो.

न जाने कब टूट जाय 
उसकी धीमी पड़ती सांस,
न जाने कब सुन जाय 
पायल की आखिरी खनक.

शनिवार, 25 नवंबर 2017

२८६. कविता

मैंने छोड़ दिया है अब 
कविता लिखना.

कविता लिखने का सामान -
काग़ज़, कलम,दवात -
दूर कर दिया है मैंने,
यहाँ तक कि कुर्सी-मेज़ भी 
हटा दी है अपने कमरे से.

मन में भावनाओं का 
ज्वार उमड़ रहा हो,
शब्द अपने-आप 
लयबद्ध होकर आ रहे हों,
तो भी नहीं लिखता मैं 
कोई कविता.

मैंने तय कर लिया है 
कि मैं तब तक नहीं लिखूंगा 
कोई नई कविता,
जब तक कि उसमें लौट न आए  
कोई आम आदमी.

रविवार, 19 नवंबर 2017

२८५.परिवर्तन


पत्तों से भरा सेमल का पेड़
ख़ुश था बहुत,
हवाएं उसे दुलरातीं,
पथिक सुस्ता लेते 
उसकी घनी छाया में,
फुदकते रहते पंछी 
उसकी हरी-भरी टहनियों में.

एक दिन पत्तियां गुम हुईं,
फूलों से लद गया सेमल,
जो भी देखता उसे,
बस देखता ही रह जाता,
फूला न समाता 
आत्म-मुग्ध सेमल.

पर ये दिन भी निकल गए,
अब न फूल हैं, न पत्ते,
न पक्षी हैं, न पथिक,
आज सेमल अकेला है,
बहुत उदास है सेमल.

इस बार जब पत्ते आएंगे,
सेमल उन्हें बाँहों में जकड़ लेगा,
गिरने नहीं देगा उन्हें,
सूखने नहीं देगा उनका रस.

इस बार जब फूल आएंगे,
सेमल ध्यान रखेगा उनका,
बिछड़ने नहीं देगा उन्हें,
बचाएगा उन्हें बुरी नज़र से.

इस बार जब फुदकेंगे पंछी,
सेमल उन्हें उड़ने नहीं देगा,
ओझल नहीं होने देगा उन्हें,
चौकसी करेगा उनकी.

सेमल नहीं जानता
कि ऐसा हो नहीं सकता,
ऐसा होना भी नहीं चाहिए,
सेमल नहीं जानता 
कि परिवर्तन ही नियम है,
परिवर्तन ही अच्छा है.

रविवार, 5 नवंबर 2017

२८४. आख़िरी कदम

बहुत दूर से,
बहुत देर से,
बहुत तकलीफ़ सहकर 
तुम आख़िर पहुँच ही गई 
मेरे दरवाज़े तक.

मैंने भी लगभग 
खुला छोड़ रखा था दरवाज़ा,
तुम दस्तक देती,
तो खुल जाता अपने आप,
पर दरवाज़े तक आकर
तुम वापस लौट गई,
मैंने भी आहट सुन ली थी 
तुम्हारे आने की,
पर दस्तक के इंतज़ार में रहा.

हम जब एक लम्बा सफ़र 
तय कर लेते हैं,
तो एक आख़िरी कदम बढ़ाना 
इतना मुश्किल क्यों हो जाता है,
या फिर आख़िरी कदम
वही क्यों नहीं बढ़ा लेता,
जिसने कोई सफ़र किया ही न हो.

शुक्रवार, 27 अक्तूबर 2017

२८३.रफ़्तार


धीरे-धीरे रफ़्तार पकड़ रही है गाड़ी,
छूट गया पीछे स्टेशन,
ओझल हो गए परिजन,
जाने-पहचाने मकान,
गली-कूचे, सड़कें,
पेड़,चबूतरे- सब कुछ.

पीछे रह गया मेरा शहर,
धीरे-धीरे छूट जाएगा 
मेरा ज़िला, मेरा सूबा,
पीछे रह जाएगी यह हवा,
इसकी ताज़गी,
यह मिट्टी, इसकी ख़ुशबू.

रफ़्तार के नशे में हूँ मैं,
आँखें मुंदी हैं मेरी,
एक नई मंज़िल के सपने का 
ख़ुमार है मुझ पर.

नई मंज़िल न जाने कैसी होगी,
न जाने होगी भी या नहीं,
पर जो था, जो है,
सब छूटता जा रहा है.

शनिवार, 21 अक्तूबर 2017

२८२. दिया और हवाएं


इस बार की दिवाली कुछ अलग थी,
बस थोड़े से चिराग़ जल रहे थे,
अचानक तेज़ हवाएं चलीं,
एक-एक कर बुझ गए दिए सारे,
पर एक दिया जलता रहा,
लड़ता रहा तब तक,
जब तक थक-हारकर 
चुप नहीं बैठ गईं हवाएं.

उस एक चिराग़ ने प्रज्वलित किए
वे सारे दिए, जो बुझ गए थे 
और बहुत से ऐसे दिए भी, 
जिन्हें जलाया नहीं गया था.

अब सैकड़ों-हज़ारों दिए जल रहे हैं
आत्म-विश्वास से भरपूर,
सिर उठाए खड़ी है उनकी लौ
और किसी कोने में सहमी सी बैठी हैं 
तेज़ हवाएं.

शनिवार, 14 अक्तूबर 2017

२८१. दहशत में जीभ

आजकल गुमसुम रहती है मेरी जीभ ,
बोलती नहीं कुछ भी,
बस चुपचाप पड़ी रहती है मुंह में.

खो गया है उसका अल्हड़पन,
फूल नहीं झरते अब उससे,
मेरी जीभ नहीं करती अब 
रोतों को हंसा देने वाली बातें,
अब नहीं करती वह 
पहले सी ज़िद,
नहीं कहती कहीं भी जाने को,
नहीं कहती कुछ भी खाने को,
सारे स्वाद भूल गई है मेरी जीभ.

अब बच्ची नहीं रही मेरी जीभ ,
अचानक से बड़ी हो गई है,
आजकल मेरी जीभ 
मेरे ही दांतों की दहशत में है.

शनिवार, 7 अक्तूबर 2017

२८०. अंततः

पहले जलता है मेघनाद,
फिर जलता है कुम्भकर्ण.

बचा रहता है रावण देर तक,
क्योंकि सबसे ताक़तवर होता है वह,
पर अंत तो उसका भी होता है,
आख़िर में जलता है वह भी.

सबसे ताक़तवर आख़िर में जलता है,
पर जलना पड़ता है हर आततायी को 
कभी-न-कभी.

शनिवार, 30 सितंबर 2017

२७९. समीक्षा

सुन्दर शब्द चुने हैं तुमने,
खूबसूरती से सजाया है उन्हें,
लय का ध्यान रखा है पूरा,
पर कवि, मुझे नहीं लगता 
कि तुमने जो लिखा है,
उसे कविता कहा जाना चाहिए.

कवि, अगर अपनी कविता में तुम
किसी आम आदमी की दास्तान,
किसी मजदूर की व्यथा,
किसी किसान की वेदना,
किसी गृहिणी का दुःख
या किसी बच्चे की मुस्कराहट का ज़िक्र करते,
तो भी मुझे पक्का यकीन नहीं है
कि तुम जो लिखते, वह कविता होती.

कवि,कविता के लिए एक ही कसौटी है मेरी,
समीक्षा का एक ही मानक है मेरा,
तुम्हारे लिखे को  मैं 
कविता तभी मानूंगा,
जब वह मेरे दिल को छू ले.

शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

२७८. पेड़




क्यों काट रहे हो मुझे?

मैं जो चुपचाप खड़ा रहता हूँ 

अपनी जगह पर,
न सोता हूँ, न बैठता हूँ,
हिलता भी नहीं अपनी जगह से,
क्या दुश्मनी है तुम्हारी मुझसे?

मेरी डालियों पर बने 
घोंसलों को देखो,
जिनमें मासूम चूज़े छिपे बैठे हैं,
उन पंछियों को देखो,
जिनका मैं आसरा हूँ,
उन कीड़ों-मकोड़ों, 
उन जानवरों को देखो,
जो मेरे सहारे ज़िन्दा हैं,
क्या दुश्मनी है तुम्हारी उनसे?

मेरे कोमल पत्तों को देखो,
फूलों और फलों को देखो,
जो तुम्हारे काम आते हैं,
ज़हरीली हवा के बारे में सोचो,
जो मैं पी लेता हूँ,
ताज़ी हवा के बारे में सोचो,
जो मैं तुम्हें देता हूँ,
मेरी छाया को देखो,
जिसमें तुम सुस्ता लेते हो.

मुझे काटने से पहले 
कम-से-कम इतना ही बता दो 
कि तुम्हारी  ख़ुद से दुश्मनी क्या है?

शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

२७७. मदद

मैं सोया हुआ हूँ,
पर साँसें चल रही हैं,
दिल धड़क रहा है,
रक्त शिराओं में बह रहा है.

मैं सोया हुआ हूँ,
पर ये सब जाग रहे हैं,
काम पर लगे हुए हैं,
ताकि मैं सो भी सकूं,
ज़िन्दा भी रह सकूं.

शुक्रवार, 8 सितंबर 2017

२७६. पिता

तुम्हारे जाने के बाद मैंने जाना 
कि कितना चाहता था मैं तुम्हें.
जब तुम ज़िन्दा थे,
पता ही नहीं चला,
चला होता तो कह ही देता,
बहुत ख़ुश हो जाते तुम,
मैं भी हो जाता 
अपराध-बोध से मुक्त.

ऐसा क्यों होता है 
कि एक ज़िन्दगी गुज़र जाती है
और हमें इतना भी पता नहीं चलता 
कि हम किसको कितना चाहते हैं.

शनिवार, 2 सितंबर 2017

२७५. बूढ़ा चिड़िया से



चिड़िया, क्यों चहचहा रही हो
मेरी खिड़की पर बैठ कर?
क्यों जगा रही हो मुझे 
सुबह-सवेरे?
कौन है जिसे इंतज़ार है
मेरे जगने का?
कौन सा काम रुक जाएगा 
मेरे सोए रहने से?

चिड़िया, तुम्हें नहीं मालूम 
कि अकेले-अकेले दिन काटना 
कितना मुश्किल होता है,
कितनी चुभती है 
अनदेखी अपनों की,
कितना सालता है 
पल-पल का अपमान.

चिड़िया, तुम जो दिनभर उड़ती रहती हो,
ख़ुशी से चहचहाती रहती हो,
तुम्हें क्या मालूम 
कि चुपचाप बैठे रहने से 
चुपचाप सोए रहना ज़्यादा अच्छा है.

शनिवार, 26 अगस्त 2017

२७४. मसालेदार कविता

कविता लिखो,
तो सादी मत लिखना,
कौन पसंद करता है आजकल 
सादी कविता ?
तेज़ मसाले डालना उसमें,
मिर्च डालो,
तो तीखी डालना,
ऐसी कि पाठक पढ़े,
तो मुंह जल जाय उसका,
आंसू निकल जायँ उसके,
पता चल जाय उसे 
कि किसी कवि से पाला पड़ा था.

कविता लिखो,
तो रेसिपी ऐसी रखना 
कि समझ ही न पाए पाठक 
कि वह बनी कैसे है.

ऐसी कविता लिख सके तुम,
तो डर जाएगा पढ़नेवाला,
वाह-वाह कर उठेगा
और अगर सादी कविता लिखी,
उसकी समझ में आ गई,
तो हो सकता है 
वह तुम्हें कवि मानने से ही 
इन्कार कर दे.  


शनिवार, 19 अगस्त 2017

२७३. अस्तित्व


रेलगाड़ी की दो पटरियां 
एक दूसरे का साथ देती 
चलती चली जाती हैं 
एक ही मंजिल की ओर.

सर्दी-गर्मी,धूप-बरसात 
सब साथ-साथ सहती हैं,
फिर भी बनाए रखती हैं
अपना अलग अस्तित्व.

रेलगाड़ी की पटरियां सिखाती हैं 
कि दो लोग कितने ही क़रीब क्यों न हो,
उन्हें इतना क़रीब नहीं होना चाहिए 
कि अपना अस्तित्व ही खो दें.

शनिवार, 12 अगस्त 2017

२७२. जीवन

बूँद-दर-बूँद रिस रहा जीवन,
ऐसे कि ख़ुद को ख़बर नहीं,
वैसे तो बहुत कुछ बचा है रिसने को,
कौन जाने, ख़ाली हो जाय अभी-अभी.

अभी देखा तो ख़ुशी से पागल था वो,
अभी आँखों में है नमी उसकी,
पल-भर में सब बदल गया ऐसे,
एक पल में छिपे हों जैसे बरस कई.

अभी तो जीवन से भरा था वो,
नज़र फिरी कि सब कुछ ख़त्म हुआ,
जादू कहें इसे या नाटक कहें कोई,
जो सच लगता है, सच है ही नहीं.

शुक्रवार, 4 अगस्त 2017

२७१.मुसाफ़िर से

मुसाफ़िर,
तुम समझ रहे हो न
कि यह रेलगाड़ी है,
जो चल रही है,
तुम ख़ुद नहीं चल रहे.

मुसाफ़िर,
यह रेलगाड़ी है,
जो तुम्हें मंजिल तक पहुंचाएगी,
अगर यह रुक जाय,
तो शायद तुम पहुँच भी न पाओ 
अपने बूते.

मुसाफ़िर,
किसी ने तुम्हें स्टेशन पहुंचाया,
कोई तुम्हें स्टेशन से ले जाएगा,
तुम्हें पता भी नहीं चलेगा,
पर तुम्हें पग-पग पर 
किसी की ज़रूरत होगी.

मुसाफ़िर,
कभी-कभी हमें लगता है 
कि हम अकेले चल रहे हैं,
सब कुछ ख़ुद कर रहे हैं,
पर यह सच नहीं होता.

मुसाफ़िर,
वैसे तो तुम अकेले चल रहे हो,
हिम्मत का काम कर रहे हो,
पर यह न समझ लेना 
कि तुम्हारे अकेले चलने में 
किसी का योगदान नहीं है.

शनिवार, 29 जुलाई 2017

२७०. सपने में मुलाक़ात

जब कभी हम मिले,
तुम्हारे साथ कोई था.

मैं अब तक नहीं समझा 
कि मुझमें ऐसा क्या है,
जो तुम्हें मुझसे अकेले में 
मिलने से रोकता है,
ऐसा क्या है मुझमें 
जो मुझसे तुम्हें डराता है.

चलो, अबकी बार मिलो,
तो सपने में मिलना,
अकेले में तुमसे मिलने की 
मेरी तमन्ना पूरी तो हो,
सपने में ही सही.

शुक्रवार, 21 जुलाई 2017

२६९. बूढ़ा


अपने आप से बात करता 
वह बूढ़ा बड़ा अजीब लगता है,
बेपरवाह, बेख़बर,
बस चलता जा रहा है 
अपनी ही धुन में,
ख़ुद से ही बतियाता.

एक वह भी वक़्त था,
जब घिरा रहता था वह 
चाहनेवालों से,
पर अब कोई नहीं,
न कोई दोस्त,
न कोई अपना,
किसी के काम का नहीं,
अब निपट अकेला है वह.

बूढ़ा मजबूर है,
जिससे कोई बात न करे,
वह ख़ुद से बात न करे,
तो और क्या करे?

शनिवार, 15 जुलाई 2017

२६८.ख़तरा

वह जो ख़ुद से 
बात कर रहा है,
इसलिए कर रहा है 
कि दूसरों से बात करने की 
उसको इजाज़त नहीं है.

डरते हैं सब उससे,
न जाने क्या बोल बैठे वह,
किसे शर्मिंदा कर दे, 
किसका नुकसान कर दे. 

पूरे होशो-हवास में है वह,
पर उसे चुप किया जा सके,
तो उसके बोलने का ख़तरा 
क्यों उठाया जाय?

वह ख़ुद से बात कर सकता है,
क्योंकि सबको लगता है,
इसमें कोई ख़तरा नहीं,
पर अनाड़ी हैं सब,
उन्हें नहीं पता 
कि ख़ुद से बात करने में ही 
सबसे ज़्यादा ख़तरा है.

शनिवार, 8 जुलाई 2017

२६७. घास


क्या आपने बारिश के बाद 
कभी घास की खुशबू महसूस की है?
वैसे तो घास जैसी भी हो,
उसकी अपनी महक होती है,
पीली पड़ गई सूखी घास भी 
बहुत खुशबू बिखेरती है,
बस ज़रूरत इस बात की है 
कि उसे घास न समझा जाय.

अगर घास की ओर देखने का 
हमारा नज़रिया बदल जाय,
तो अनाज में जितनी महक होती है,
घास में उससे कम नहीं होती.

महाराणा प्रताप ने घास की रोटी 
कभी मजबूरी में खाई थी,
पर मजबूरी न भी हो,
तो भी घास की रोटी का 
अपना अलग स्वाद होता होगा,
जैसे उसकी अलग खुशबू होती है.

शुक्रवार, 30 जून 2017

२६६.विस्मृति

मैं कभी भूल जाऊं,
तो तुम मुझे याद दिला देना.

मुझे याद रहेगा,
कहाँ-कहाँ हैं हमारे मकान,
हमारे खेत, हमारी दुकान,
कहाँ-कहाँ हैं तुम्हारे गहने,
हीरे-मोती, सोना-चांदी,
किस-किस बैंक में हैं हमारे खाते,
किस स्कीम में जमा है कितनी पूँजी,
किसको दिया है कितना उधार.

सब कुछ रट सा गया है,
कुछ भी नहीं भूलूंगा मैं,
पर मुमकिन है, कभी भूल जाऊं 
कि तुम कौन हो.

कभी ऐसा हो जाय,
तो तुम मुझे याद दिला देना.

शनिवार, 24 जून 2017

२६५.ज़रूरी

इश्क में थोड़ा झुकना भी ज़रूरी है,
लम्बा चलना है, तो रुकना भी ज़रूरी है.

यह सोच कर तमाचा सह लिया मैंने,
कुछ पाना है अगर, तो खोना भी ज़रूरी है.

आवाज़ दूँ कभी, तो देख लेना मुड़ के,
जीना है अगर, तो उम्मीद भी ज़रूरी है.

पत्थर जो फेंको, तो ज़रा ज़ोर से फेंको,
कोशिश जो की है, तो नतीज़ा भी ज़रूरी है.

कोई डर है जो दिल में, दिल ही में रखो,
चेहरे से हौसला झलकना ज़रूरी है.

शुक्रवार, 16 जून 2017

२६४.रोना मना है

अगर किसी बात पर 
तुम्हारा दिल भर आए,
आंसू तुम्हारी पलकों तक चले आएं,
तो उन्हें पलकों में ही रोक लेना,
छलकने मत देना.

एक तो कमज़ोरी की निशानी है रोना
और कमज़ोर दिखना अच्छा नहीं है,
दूसरे, रोना सख्त़ मना  है,
क्योंकि तुम्हारे रोने से 
दूसरों की हंसी में 
ख़लल पड़ता है.

शनिवार, 10 जून 2017

२६३. आओ, चलो

आओ, अब चलो.

वह पहले सा प्रभाव,
पहले-सी सुनवाई,
तुम्हारी एक हांक पर 
दौड़े चले आना सब का,
तुम्हारी एक डांट पर 
साध लेना मौन,
तुम्हारा हर निर्णय 
पत्थर की लकीर समझा जाना -
अब बीते दिनों की बातें हैं.

देखते-ही-देखते 
छोटे हो गए हैं बड़े,
बड़े हो गए हैं समझदार,
तुम्हारी सलाह,
तुम्हारे निर्णय,
तुम्हारे विश्लेषण -
सब पर अब 
एक प्रश्न-चिन्ह लग गया है.

उठो, पहचानो सच को,
महसूसो बदली हुई फ़िज़ां,
समेटो अपनी चौधराहट,
आओ, अब चलो.

शुक्रवार, 26 मई 2017

२६२. भगवान से



भगवान,मैं मानता हूँ 
कि तुम बहुत बड़े इंजीनियर हो.

तुमने अरबों-खरबों लोग बनाए,
हर एक दूसरों से अलग,
हर एक का अलग चेहरा-मोहरा,
हर एक की अलग कद-काठी,
हर एक का अलग रंग-रूप.

पर शायद कुछ युद्ध टल जाते,
शायद कुछ भाईचारा बढ़ जाता,
शायद दुनिया कुछ रहने लायक हो जाती,
शायद दुःख कुछ कम हो जाता,
अगर तुम ऐसा नहीं करते.

भगवान, मुझे लगता है 
कि तुमने अरबों-खरबों लोग बनाए,
यहाँ तक तो ठीक था,
पर हर एक को अलग बनाकर 
तुमने अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल 
ज़रूरत से थोड़ा ज़्यादा कर दिया.

भगवान, क्या तुम्हें नहीं लगता 
कि जो दुनिया तुमने ख़ुद बनाई,
वह तुम्हारी विलक्षण प्रतिभा की 
शिकार हो गई.

शुक्रवार, 19 मई 2017

२६१. पैसेंजर और राजधानी


धीरे-धीरे बढ़ रहा हूँ 
मैं तुम्हारी ओर,
जैसे बढ़ती है 
कोई पैसेंजर गाड़ी 
हर स्टेशन पर रुकती,
यात्रियों को चढ़ाती-उतारती.

लगता है,
यूँ ही रुकते-रुकाते,चलते-चलाते,
तुमसे हो ही जाएगी मुलाक़ात,
पर मेरा मुंह चिढ़ाती,
राजधानी ट्रेन की तरह 
तुम सर्र से निकल मत जाना.

शुक्रवार, 12 मई 2017

२६०. बोल

बोल, किस बात का डर है तुझे,
जो तेरे पास है, उसे खोने का
या उसे, जो तेरा हो सकता है?

बोल, क्यों चुप है तू,
कौन सा ताला है तेरे मुंह पर,
प्यार का, डर का या लालच का?

बोल, किस दुविधा में है तू,
क्या है, जो तेरे ज़मीर से बढ़कर है,
क्या है, जो तेरी इज्ज़त से क़ीमती है?

बोल, क्या चाह है तेरे मन में,
क्या इतनी छोटी है तेरी चादर 
कि समा नहीं सकते उसमें तेरे पांव?

क्या हुआ तेरी ज़बान को?
देख, निकला जा रहा है वक़्त,
मुंह से नहीं, तो आँखों से ही बोल,
बोल, कुछ तो बोल.

शनिवार, 6 मई 2017

२५९.बिकाऊ

वह जो बाज़ार में नहीं है,
यह मत समझना
कि बिकाऊ नहीं है.

ग़लतफ़हमी में है वह,
ग़लतफ़हमी में हैं सभी 
कि उसे ख़रीदना नामुमकिन है.

कभी कोई ख़रीदार आएगा,
उसकी ऐसी क़ीमत लगाएगा,
जैसी उसने सोची न होगी,
जो डाल देगी उसे दुविधा में,
तोड़ देगी उसका संकल्प.

अंततः उसे झुकना होगा,
उसे मानना ही होगा 
कि यहाँ सब बिकाऊ हैं,
जो बाज़ार में हैं, वे भी,
जो नहीं हैं, वे भी.

शनिवार, 29 अप्रैल 2017

२५८. रेलगाड़ी

दूर अँधेरे में चमकती एक बत्ती,
पहले एक छोटे-से बिन्दु की तरह,
फिर धीरे-धीरे बढ़ती हुई,
पास, और पास आती हुई.


जूतों के तस्मे अब बंधने लगे हैं,
खड़े हो गए हैं सब अपनी जगह,
उठा लिए हैं बक्से हाथों में,
थाम ली हैं बच्चों की उँगलियाँ.

अब अँधेरा दूर होगा,
मंज़िल की ओर कूच करेंगे सब,
बस कुछ ही देर की बात है,
रेलगाड़ी प्लेटफ़ॉर्म पर पहुँचनेवाली है.

शुक्रवार, 21 अप्रैल 2017

२५७. वह दुनिया

जी करता है,
फिर से संकरी पगडंडियों पर चलूँ,
लहलहाते धान के खेतों को देखूं,
फूलों पर पड़ी ओस की बूंदों को छूऊँ,
ताज़ी ठंडी हवा जी भर के पीऊँ.

जी करता है,
टीन के छप्पर पर रात को बरसती 
बारिश का संगीत सुनूँ,
आँगन में लगे आम के पेड़ पर 
उग आए बौरों को देखूं.

जी तो बहुत करता है,
पर अब वह दुनिया कहाँ से लाऊँ,
जिसे इस दुनिया के लिए 
मैंने बहुत पहले बदल दिया था.

शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017

२५६. मंज़िल

मुसाफ़िर,
न जाने क्यों मुझे लगा 
कि मैं तुम्हारी मंज़िल हूँ.

इसमें तुम्हारा क़सूर नहीं,
मेरी ही ग़लती थी 
कि मुझे ऐसा लगा,
पर जब लग ही गया,
तो मुसाफ़िर,
बस इतना कर देना 
कि जब मेरी गली से गुज़रो,
तो मेरी ओर देख लेना.

अगर देख कर मुस्करा सको,
तो और भी अच्छा,
मुझे लगेगा 
कि मेरी ग़लतफ़हमी से 
तुम नाराज़ नहीं हो,
मुझे लगेगा 
कि मैं तुम्हारी मंज़िल नहीं था,
पर मुझे मेरी मंज़िल मिल गई.

शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

२५५. अहम्

मुझे पता था
कि तुम दरवाज़े पर हो,
तुम्हें भी पता था 
कि मुझे पता है.

मैं इंतज़ार करता रहा 
कि तुम दस्तक दो,
तुम सोचती रही 
कि मैं बिना दस्तक के 
खोल दूं दरवाज़ा.

दोनों ही चाहते थे 
कि दरवाज़ा खुल जाय,
पर न तुमने दस्तक दी,
न मैंने दरवाज़ा खोला. 

शनिवार, 1 अप्रैल 2017

२५४. नीयत

अर्जुन, तुम्हें याद है ?
द्रोणाचार्य ने मुझसे 
गुरु-दक्षिणा में 
अंगूठा माँगा था,
उस ज्ञान के लिए,
जो उन्होंने मुझे दिया नहीं,
मैंने उनसे लिया था.

दुर्भावना थी उनके मन में,
कोई विराट उद्देश्य नहीं था,
बस एक चाह थी
कि कोई निकल न जाय 
तुमसे आगे....
इसके लिए चाहे जो करना पड़े-
अनीति,अधर्म,छल-कपट.

अर्जुन, नादान था मैं,
सच में उन्हें गुरु मान बैठा,
उनकी चालाकी से बेख़बर 
झट से अपना अंगूठा दे दिया,
उस गुरु-दक्षिणा का वे क्या करते?
क्या भला होना था उससे किसी का?

अर्जुन, अंगूठा खोकर मैंने जाना 
कि देना तभी चाहिए,
जब माँगनेवाले की नीयत ठीक हो.


शुक्रवार, 24 मार्च 2017

२५३. मैं और वो

शहर की सुंदर लड़की,
तेज़-तर्रार,
नाज़-नखरेवाली,
साफ़-सुथरी,
सजी-धजी,
शताब्दी ट्रेन की तरह 
सरपट दौड़ती.

मैं, गाँव का लड़का,
सीधा-सादा, भोला-भाला,
पटरी पर खड़ा हूँ,
जैसे कोई पैसेंजर ट्रेन.

उसे मुझसे आगे निकलना है.

शुक्रवार, 17 मार्च 2017

२५२. उलझन

आजकल मैं उलझन में हूँ.

देख नहीं पाता खुद को
आईने में,
सुन नहीं पाता
अपनी ही आवाज़,
रोक नहीं पाता खुद को 
चलने से.

सोता हूँ,
तो लगता है,
जाग रहा हूँ,
जागता हूँ,
तो लगता है,
सो रहा हूँ.

आजकल मैं उलझन में हूँ,
अक्सर रात में 
मैं उठ जाता हूँ,
तसल्ली कर लेता हूँ 
कि मैं बस सोया हूँ,
अभी ज़िन्दा हूँ.

शुक्रवार, 10 मार्च 2017

२५१.होली

होली में तुम्हें 
जो ख़त लिखने बैठा,
तो अचानक स्याही फ़िसल गई,
नीला हो गया सब कुछ- 
कुरता -पाजामा, उँगलियाँ -
और अपनी ही उंगलियों ने 
चेहरा भी रंग डाला थोड़ा-सा.

ऐसा लगा जैसे तुमने 
चुपके से रंग दिया हो मुझे.

ख़त तो मैं लिखूंगा ही,
पर जब तक तुम पढ़ोगी,
स्याही सूख चुकी होगी,
रंग नहीं पाएगी 
तुम्हारा कुरता,
तुम्हारी सलवार,
तुम्हारा दुपट्टा,
तुम्हारी उँगलियाँ.

पर ख़त पढ़ते-पढ़ते 
जब तुम्हारे चेहरे का रंग 
गुलाबी हो जाय,
तो समझ लेना 
कि मैंने तुम्हें 
और तुमने मुझे 
रंग दिया है,
समझ लेना 
कि हमारी होली 
आख़िर मन गई है. 

शुक्रवार, 3 मार्च 2017

२५०. मैं और पुराना टी.वी.

सालों-साल इस टी.वी. ने दिखाई हैं तुम्हें
रंगीन जीवंत तस्वीरें,
पंहुचाई हैं तुम तक 
प्रिय-अप्रिय आवाजें.

सालों-साल तुम्हें सिखाया है
इस पुराने टी.वी. ने,
तुम्हारा दिल लगाया है इसने.

अब इस टी.वी. के रंग 
कुछ फ़ीके पड़ गए हैं,
इसकी आवाज़ में थोड़ी 
खरखराहट आ गई है,
पर तुम्हें लगता है 
कि अब भी बहुत दम है इसमें.
थोड़ी मरम्मत हो जाय,
तो घर में रखा जा सकता है इसे,
काम आ सकता है यह पुराना टी.वी.

तुम्हारे टी.वी. से तो बेहतर हालत है मेरी,
फिर मुझे निकालने की बातें क्यों?
एक जीते-जागते से इतनी बेरुख़ी क्यों ?

मुझसे तो ज़्यादा किस्मतवाला 
तुम्हारा यह पुराना टी.वी. है,
काश, मैं इंसान नहीं,टी.वी.होता.

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2017

२४९. चले गए

बरसों से जो साथ थे, अचानक बिछड़ गए,
जाने कहाँ से आए थे, कहाँ चले गए.

आसां नहीं होता दिल की बात कह देना,
मैं सोचता ही रह गया,वे उठकर चले गए.

अरसे बाद लौटकर वे घर को आए हैं,
लौटना ही था, तो फिर किसलिए चले गए.

न जाने मेरी नज़रों में क्या दिखा उनको,
वे तमतमाए,उठे,महफ़िल से चले गए.

मत सोचो,क्या होगा,जब तुम नहीं होगे,
कितने यहाँ आए, कितने चले गए.

शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

२४८.अच्छी पत्नी

अच्छी पत्नियाँ वे होती हैं,
जो अपने पतियों के 
पीछे-पीछे चलती हैं,
जैसा वे कहें, वैसा करती हैं,
उनकी पसंद का पकाती हैं,
घर में सब खा लेते हैं,
तब खाती हैं.

अच्छी पत्नियाँ वे होती हैं,
जिनके पति तय करते हैं 
कि उन्हें कहाँ जाना है,
किससे बात करना है,
कब जगना है,
कब सोना है.

अच्छी पत्नियाँ वे होती हैं,
जो डांट-फटकार 
यहाँ तक कि मार भी 
चुपचाप सह लेती हैं
और इस तरह मुस्कराती हैं,
जैसे कुछ हुआ ही न हो.

अच्छी पत्नी न इंसान होती है,
न देवी,
कठपुतली होना 
अच्छी पत्नी होने की 
पहली शर्त है.

शनिवार, 11 फ़रवरी 2017

२४७.पिता

पिता, कभी-कभी जी करता है 
कि कोई ज़ोर से डांटे,
पूछताछ करे,टोकाटाकी करे,
कहे कि आजकल तुम्हारे 
रंग-ढंग ठीक नहीं हैं.
घर से निकलूं तो कहे,
जल्दी वापस आ जाना,
देर से लौटूं तो कहे,
मेरी बात ही नहीं सुनते,
बिना कहे जाऊं तो पूछे,
कहाँ गए थे,
किसी के साथ जाऊं तो पूछे,
उसका नाम क्या है?

पिता, जब तुम पूछते थे,
तो सोचता था, क्यों पूछते हो,
अब तुम नहीं हो,
तो तरस गया हूँ,
उसी डांट-फटकार, टोका-टाकी,
पूछताछ के लिए.

पिता, तुम गए तो मैंने जाना
कि बड़ा होकर भी 
बच्चा होने का सुख 
आख़िर क्या होता है.

शनिवार, 4 फ़रवरी 2017

२४६. गाँव का स्टेशन

गाँव के लोग उठ जाते हैं 
मुंह अँधेरे,
पर गाँव का स्टेशन सोया रहता है.
उसे जल्दी नहीं उठने की,
उठ भी जाएगा तो करेगा क्या?
हांफते-हांफते 
दोपहर बाद पंहुचेगी 
गाँव में रुकनेवाली 
इकलौती पैसेंजर ट्रेन 
और फिर सन्नाटा.
कभी गाड़ी लेट हो जाती है 
या रद्द हो जाती है,
तो अकेलापन महसूस करता है 
गाँव का स्टेशन,
बहुत उदास हो जाता है 
गाँव का स्टेशन,
सोचता है कि अगर वह नहीं होता 
तो भी गाँव को 
शायद ही कोई फ़र्क पड़ता.

शुक्रवार, 27 जनवरी 2017

२४५.गुठली




चूसकर फेंकी गई जामुन की एक गुठली 
नरम मिट्टी में पनाह पा गई,
नन्ही-सी गुठली से अंकुर फूटा,
बारिश के पानी ने उसे सींचा,
हवा ने उसे दुलराया.

धीरे-धीरे एक पौधा,
फिर पेड़ बन गई 
जामुन की वह छोटी-सी गुठली,
चूसनेवाले बेख़बर रहे.

अब हज़ारों-लाखों जामुनों से,
लदा है यह विशाल पेड़,
आ पहुंचे हैं पेड़ के आस-पास
अब फिर से वही लोग,
जिन्होंने कभी जामुन को चूसकर 
बेरुख़ी से कहीं फेंक दिया था. 

शनिवार, 21 जनवरी 2017

२४४. वे महिलाएं

बल्लियों के सहारे,
सिर पर बोझ लिए,
आसमान की ओर 
धीरे-धीरे बढ़ती 
दुबली-पतली महिलाओं को देखकर 
मुझे बड़ा डर लगता है.

कहीं बल्ली टूट गई तो,
कहीं पैर फ़िसल गया तो,
बुरे-बुरे ख्याल 
मन में आते हैं.

और उस वक़्त तो 
मेरा दिल धक्क से रह जाता है,
जब वे अपनी गरदन को 
हल्का-सा मोड़कर 
मुस्करा देती हैं.

शनिवार, 14 जनवरी 2017

२४३. जाड़े की धूप


दिसम्बर की कंपकंपाती ठण्ड में,
जब निकलता है सूरज,
तो आ जाती है जान में जान,
बहुत सुहाता  है अकड़े बदन पर 
धूप का स्पर्श,
शायद यही होता है स्वर्ग.

शिव, अपना तीसरा नेत्र खोलो,
तो कुछ ऐसे देखना 
कि जल जाय एक-एक कर सब कुछ,
पर बची रह जाय आख़िर तक 
जाड़े की यह गुनगुनी धूप.

शुक्रवार, 6 जनवरी 2017

२४२. गाँव का स्टेशन




मैं गाँव का स्टेशन,
अकेला, अनदेखी का मारा,
पटरियां गुज़रती हैं मेरे सामने से,
गाड़ियाँ सरपट दौड़ जाती हैं,
मैं बस देखता रह जाता हूँ.

दिनभर में एकाध पैसेंजर 
हालचाल पूछ लेती है रूककर,
फिर निकल जाती है आगे,
मेरा प्लेटफ़ॉर्म सूना रह जाता है.

ओ राजधानी, रोज़ नहीं,
तो कभी-कभी ही रुक जाया करो,
दुआ-सलाम कर लिया करो,
यात्री चढ़ाने-उतारने के लिए नहीं,
तो क्रॉसिंग के लिए ही सही,
तकनीकी ख़राबी के बहाने ही सही,
पांच साल में एक बार ही सही,
जैसे चुनाव के दिनों में कभी-कभी 
राजधानीवाले गाँव चले आते हैं.