शुक्रवार, 8 दिसंबर 2017

२८८. स्टेशन

मैं चुपचाप जा रहा था ट्रेन से,
न जाने तुम कहाँ से चढ़ी 
मेरे ही डिब्बे में
और आकर बैठ गई 
मेरे ही बराबरवाली सीट पर.

धीरे-धीरे बातें शुरू हुईं 
और बातों ही बातों में 
हमने तय कर लिया 
कि हम एक ही स्टेशन पर उतरेंगें,
वह स्टेशन कोई भी क्यों न हो.

पर छोटे-से सफ़र में 
न जाने क्या गड़बड़ हुई, 
तुमने कह दिया
कि ऐसे किसी भी स्टेशन पर 
तुम उतर जाओगी,
जहाँ मैं नहीं उतरूंगा.

मैंने भी सोच लिया है 
कि ऐसे किसी भी स्टेशन पर 
मैं उतर जाऊंगा,
जहाँ तुम उतरोगी.

क्या कोई ऐसा भी स्टेशन है,
जहाँ से ट्रेन 
न आगे जाती हो,
न पीछे लौटती हो?

अगर है, तो आओ हम दोनों 
उसी स्टेशन पर उतर जाएं.

8 टिप्‍पणियां:

  1. मन के कसमकस में फसे आपसी संबंध जहर से भी कड़वे होते हैं, न आगे जाए बने न पीछे ही जाया जाय, मन बेचारा अब कहाँ जाय।
    आदरणीय ओंकार केडिया जी, प्रेम से विभोर सुंदर रचना हेतु बधाई व सुप्रभात।

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  2. वाह...!!!
    बेहतरीन कशमकश के साथ आप ने किरदारों की मनोस्थिति परोस दी, बहुत ही प्रभावशाली रचना ....!!

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  3. वाह्ह्ह....गहन भाव लिये सुंदर रचना आपकी ओंकार जी।

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  4. वाह ! जीवन का सफ़र भी कुछ ऐसा ही प्रतीत होता है। रहस्य के धागे बुनती एक तत्व बोधी रचना। बधाई एवं शुभकामनाऐं।

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  5. आदरणीय ओंकार जी -- काश ! कोई ऐसा स्टेशन सचमुच होता !!भावुक मन की इस मासूम कल्पना को नमन | सुंदर रचना -- सादर शुभकामना |

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