शनिवार, 29 जून 2013

८७. दिल और ज़बान

बहुत अजीब लगता है,
जब कोई कहता है 
कि वह ज़बान का कड़वा,
पर दिल का बहुत साफ़ है.

क्या महत्व है इसका 
कि कोई दिल का कैसा है?
क्या मतलब हो सकता है किसी को 
किसी अजनबी के दिल से?
यह कड़वी ज़बान ही तो है,
जो सीधे दिल पर चोट करती है.

अच्छा तो यही है 
कि ज़बान मीठी हो,
जो तुरंत असर करे,
फ़ौरन खुशी पंहुचाए,
अंदर से कोई बुरा हो तो हो.

दिल का कोई कैसा भी हो,
जो न दिखता है,
न महसूस होता है,
वह कैसा भी हो,
क्या फ़र्क पड़ता है?





शनिवार, 22 जून 2013

८६. बारिश के बाद

कई दिनों की बारिश के बाद 
आज सुबह से धूप खिली है,
कलूटे बादल जा छुपे हैं कहीं,
आसमान ने थोड़ी सांस ली है.

पत्तियां सुखा रहीं हैं भीगे बदन,
पंखुड़ियों के चेहरों पर चमक छाई है,
पंछी निकल पड़े हैं घोंसलों से,
चूज़ों को भूख लग आई है.

खुल गए हैं हाट-बाज़ार, रास्ते,
बोझिल क़दमों में फिर जान आई है,
थोड़े दिन चुप रहना बारिश,
बड़ी मुश्किल से ज़िंदगी मुस्कराई है.

रविवार, 16 जून 2013

८५. झाड़ू और गृहिणी

बहुत सफाई-पसंद है गृहिणी,
रोज बुहारती है कूड़ा,
रोज लगाती है पोंछा,
छोड़ती नहीं घर का कोई कोना 
जहाँ छिप सके ज़रा-सी भी गन्दगी.

चम-चम करता है गृहिणी का घर,
न कोई दाग, न कोई धब्बा,
पर जो उसके जीवन में बिखरा है,
वह कूड़ा कम ही नहीं होता,
बढ़ता ही चला जाता है.

ढूंढ नहीं पाई गृहिणी कोई झाड़ू,
जो हटा दे इस कूड़े को,
या थोड़ा कम ही कर दे,
कम-से-कम बढ़ने न दे.

झाड़ू लगाती गृहिणी सोचती है,
क्यों न वह एक तिनका निकाले 
और उसकी आँखों में चुभो दे,
जिसने उसके जीवन में कूड़ा बिखेरा है,
पर गृहिणी रुक जाती है,
क्योंकि वह परमेश्वर है 
और परमेश्वर के बारे में 
ऐसा सोचना भी पाप है.

शनिवार, 8 जून 2013

८४. फल

उसे फल खाना पसंद है,
पर वही जिन्हें खाना आसान हो,
जिनके लिए न चम्मच चाहिए,न छूरी,
न ही जिनको खाने में हाथ गंदे होते हों.

उसे केले जैसे फल पसंद हैं
या फिर सेब,अंगूर जैसे,
संतरे,पपीते जैसे नहीं,
क्योंकि वह नफ़ासत-पसंद है.

जो फल वह खाना चाहता है,
उससे कोई प्रतिरोध उसे मंज़ूर नहीं,
वह कोई ज़द्दोज़हद नहीं चाहता,
वह बस पूरा समर्पण चाहता है.

रविवार, 2 जून 2013

८३. बेड़ियाँ

बेटी, अब तुम्हें घर में ही रहना है,
कभी-कभार निकल जाना बाहर,
ले लेना ठंडी हवा में सांस,
देख लेना पेड़ों,फूलों,परिंदों को,
सूरज,चाँद,सितारों को,
सागर,नदियों,पहाड़ों को,
मिल लेना चुनिन्दा सहेलियों से,
फिर लौट आना इसी कमरे में.

बेटी, मैं भी चाहता हूँ 
कि तुम आसमान में उड़ो,
दकियानूसी बिल्कुल नहीं हूँ मैं,
पर बाहर न जाने कौन ताक में हो,
हैं भी इतने कि पहचानना मुश्किल है.

बेटी, यह लड़की होने का दंड तो है,
पर कसूरवार मैं नहीं हूँ,
मैंने तुम्हें बेड़ियाँ पहनाई हैं,
क्योंकि मुझे प्यार है तुमसे,
न मैं तुम्हें खो सकता हूँ,
न मैं देख सकता हूँ तुम्हें
अंतहीन वेदना में.

बेटी, शहर में बहुत खतरे हैं,
जंगल होता तो छोड़ देता तुम्हें,
वहाँ शायद तुम महफूज़ रहती,
जहाँ सिर्फ भेड़िए घूमते हैं.