गुरुवार, 30 मई 2024

७६९.मैं तुम्हें भूलूँ तो कैसे?

 


प्रिय, मैं तुम्हें भूलूँ तो कैसे?


सर्दियों का शर्मीला सूरज,

जब पत्तों के पीछे छिपकर 

ओस में भीगी घास को देखता है,

जब कमल की अधखिली कलियाँ 

पानी के कंधे पर सिर रखकर 

अनजानी ख़ुशी से कांपती है,

तो मुझे तुम याद आती हो. 


सांझ की निश्चिंतता में 

जब पक्षियों के झुण्ड 

अपने घोंसलों की ओर उड़ते हैं 

या समन्दर की लहरें 

बार-बार रूठकर भी 

साहिल की ओर लौटती हैं,

तो मुझे तुम याद आती हो. 


दूर कहीं चट्टान का कोई टुकड़ा 

जब नीचे की ओर खिसकता है 

या नदी की लहरों के टकराने से 

कोई किनारा टूटता है,

तो मुझे तुम याद आती हो. 


प्रिय,

सच में और स्वप्न में,

सुख में और दुःख में,

हर वक़्त तुम मेरे साथ हो,

मैं तुम्हें भूलूँ, तो भूलूँ कैसे?


4 टिप्‍पणियां:

  1. भावपूर्ण अति सुंदर अभिव्यक्ति।
    सादर।
    ------
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ३१ मई २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  2. भूलने का हर प्रयास भी याद करने का एक बहाना ही तो है

    जवाब देंहटाएं