गुरुवार, 8 फ़रवरी 2024

७५६.ओ मेरे आँगन के नीम

 



ओ मेरे आँगन के नीम,

इस तरह चुपके से ज़मीन पर 

टहनियाँ न गिराया करो,

मुझे लगता है, 

मेरी दहलीज़ पर कोई आया है. 


मेरे दिल की धड़कनें रूककर 

क़दमों की आहट सुनना चाहती हैं,

मेरे कान उस दस्तक का इंतज़ार करते हैं,

जो कभी किसी ने मेरे दरवाज़े पर नहीं दी. 


ओ मेरे आँगन के नीम,

मैं ही क्यों, तुम भी तो अकेले हो,

फ़र्क़ बस इतना है

कि तुम घर के बाहर हो. 


मेरे अकेलेपन, मेरी वेदना को 

तुम नहीं समझोगे, तो कौन समझेगा?

मेरे दोस्त, मेरे हमसफ़र,

इस तरह मेरे अकेलेपन का 

मज़ाक न उड़ाया करो,

मेरे आँगन में चुपके से 

टहनियाँ न गिराया करो.



7 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर शनिवार 10 फरवरी 2024 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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  2. बहुत बढ़िया प्रस्तुति ओंकार जी! बचपन के नीम से इस तरह का वार्तालाप हमारी पीढ़ी ही कर पाने में सक्षम है! आज कल किसी को नीम से कहने- सुनने का समय ही कहाँ है! 🙏

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  3. पहले के घर-आंगन में नीम का पेड़ भी घर का अविभाज्य हुआ करता था जिससे संवेदनाओं के तार जुड़े होते थे । बहुत सुन्दर सृजन ।

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