मंगलवार, 22 अगस्त 2023

७२९.तब और अब

 


तब डाकिया लेकर आता था 

कभी-कभार कोई ख़त,

खिल उठता था दिल

साइकिल की घंटी सुनकर.


दौड़ कर जाते थे बाहर 

क़ाबू नहीं रहता था ख़ुद पर,

जल्दबाज़ी में लिफ़ाफ़े के साथ

अक्सर फट जाया करते थे ख़त. 


अब नहीं आता कोई डाकिया,

नहीं बजती कोई घंटी,

सैकड़ों मेल आते हैं दिन में,

कुछ तो खुलते ही नहीं, 

कुछ मारे शर्म के

ख़ुद ही घुस जाते हैं स्पैम में.


अब नहीं मिलती वह ख़ुशी,

नहीं रहा पहले-सा इंतज़ार,

समाचार तो अब भी आते हैं,  

पर मर गए हैं वे मीठे एहसास. 


2 टिप्‍पणियां:

  1. मर गए हैं मीठे अहसास

    मन को छूती रचना
    वाकई पत्रों का वह दौर रिश्तों को बांधे रखता था

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  2. पुराने दिनों में ले जाता हुआ सुंदर सृजन, समय बदलता है तो बहुत कुछ बदल जाता है, अब इंतज़ार की ज़हमत नहीं उठानी पड़ती, वीडियो कॉल से पल-पल की खबर मिल जाती है

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