शुक्रवार, 9 जुलाई 2021

५८७. रेलगाड़ी से

 


रेलगाड़ी,

तुम अपनी मंज़िल की तरफ़ 

चलती चली जाती हो,

मैदान,जंगल,गाँव,शहर- 

सब कुछ पार करती, 

ऊंचे पहाड़ों से गुज़रती,

विशाल नदियों को लाँघती. 


बाधाएँ आती हैं तुम्हारी राह में,

रुकना पड़ता है तुम्हें,

धीमी हो जाती है तुम्हारी रफ़्तार,

पर तुम दुगुने उत्साह से 

फिर चल पड़ती हो मंज़िल की ओर. 


बहुत बड़ा दिल है तुम्हारा,

बहुत अवसर देती हो तुम,

कोई सवारी न आए,

अनदेखा करे तुम्हें,

तो भी तुम उदास नहीं होती,

फिर चल देती हो आगे. 


धूप में, बरसात में,ठण्ड में,गर्मी में,

बस चलती चली जाती हो 

अपनी मंज़िल की तरफ़,

रेलगाड़ी, तुम एक योगी से 

किसी तरह कम नहीं हो. 


7 टिप्‍पणियां:

  1. धूप में, बरसात में,ठण्ड में,गर्मी में,

    बस चलती चली जाती हो
    अपनी मंज़िल की तरफ़,
    रेलगाड़ी, तुम एक योगी से
    किसी तरह कम नहीं हो.
    वाह!बहुत खूब!
    अति सुन्दर सृजन।

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