शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

५९२. सिग्नल पर ट्रेन

 

दूर कहीं से आ रही ट्रेन 

स्टेशन के बाहर सिग्नल पर 

अचानक ठहर गई है,

चलने का नाम नहीं ले रही. 


मैं प्लेटफॉर्म पर हूँ, बेचैन हूँ,

अब और इंतज़ार नहीं होता, 

जैसे किसी भूखे के पास थाली,

किसी प्यासे के पास पानी हो,

पर खाने-पीने की मनाही हो. 


ट्रेन,इससे तो अच्छा था 

कि तुम कहीं और रुक जाती,

मैं इंतज़ार कर लेता,

पर इतने पास आकर भी 

तुम्हारा इतनी दूर रहना

अब मुझसे सहा नहीं जाता. 


रविवार, 25 जुलाई 2021

५९१.माली से




माली,

तुमने अच्छा किया 

कि सुन्दर बगिया बनाई,

ऐसे फूल खिलाए,

जिनकी महक खींच लाए 

दूर से किसी को भी,

पर अब एक-से फूलों 

और एक-सी ख़ुश्बू से 

मेरा मन ऊब रहा है. 


माली,

अब दूसरे पौधे लगाओ,

दूसरे फूल खिलाओ,

जिनमें ख़ुश्बू भले कम हो, 

पर जो थोड़े अलग हों.  

बुधवार, 21 जुलाई 2021

५९०.अख़बार



मैं नहीं पढ़ता अख़बार,

उसमें छपी ख़बरें पढ़कर 

बस उदास हो जाता हूँ,

कुछ कर नहीं पाता. 


किसका बलात्कार हुआ,

किसकी हत्या,

किसका अपहरण,

कहाँ बम फटा,

कहाँ आग लगी,

किसने घोटाला किया,

बस यही तो छपता है 

हर रोज़ अख़बार में. 


लगता है,

न कुछ अच्छा हुआ है,

न हो रहा है,

न हो सकता है,

न कोई सच्चा है,

न कोई भरोसे-लायक. 


मेरे सामने अख़बार पढ़ो,

तो चुपचाप पढ़ना,

पन्ना पलटने की आवाज़ से भी 

डूबने लगती है 

मेरी बची-खुची उम्मीद.


रविवार, 18 जुलाई 2021

५८९. रात




कड़कती ठण्ड में ठिठुरती-सी रात,

कोहरे में लिपटी सहमी-सी रात,

घनघोर बारिश में भीगी-सी रात,

भीषण गर्मी में दहकती-सी रात. 


पत्थरों पर बिछी हुई चुभती-सी रात,

तीन बटा छः की संकरी-सी रात,

दर्द के मारे कराहती-सी रात,

खनकती आवाज़ों में सिसकती-सी रात. 


कभी कहीं,कभी कहीं गुज़रती-सी रात,

गालियों-डंडों से बचती-सी रात, 

टुकड़ों-टुकड़ों में बिखरती सी रात,

छोटे से दिन की लंबी सी रात. 


शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

५८८.संकल्प


घूम-घूम कर आता है
वह ज़िद्दी मच्छर,
भिनभिनाता है
मेरे कानों के पास,
जैसे बजा रहा हो
खुले आम रणभेरी.





शुक्रवार, 9 जुलाई 2021

५८७. रेलगाड़ी से

 


रेलगाड़ी,

तुम अपनी मंज़िल की तरफ़ 

चलती चली जाती हो,

मैदान,जंगल,गाँव,शहर- 

सब कुछ पार करती, 

ऊंचे पहाड़ों से गुज़रती,

विशाल नदियों को लाँघती. 


बाधाएँ आती हैं तुम्हारी राह में,

रुकना पड़ता है तुम्हें,

धीमी हो जाती है तुम्हारी रफ़्तार,

पर तुम दुगुने उत्साह से 

फिर चल पड़ती हो मंज़िल की ओर. 


बहुत बड़ा दिल है तुम्हारा,

बहुत अवसर देती हो तुम,

कोई सवारी न आए,

अनदेखा करे तुम्हें,

तो भी तुम उदास नहीं होती,

फिर चल देती हो आगे. 


धूप में, बरसात में,ठण्ड में,गर्मी में,

बस चलती चली जाती हो 

अपनी मंज़िल की तरफ़,

रेलगाड़ी, तुम एक योगी से 

किसी तरह कम नहीं हो. 


मंगलवार, 6 जुलाई 2021

५८६.अनबन

 



मुझे गेहूँ बहुत पसंद है,

उसके आटे की रोटियाँ,

मीठा या नमकीन दलिया,

बिस्किट,पकवान- सब कुछ,

पर क्या करूँ,

इन दिनों मुझे गेहूँ से 

एलर्जी हो गई है. 


मैं बड़ी मुश्किल में हूँ,

इन दिनों मेरे तन और मन में 

अनबन चल रही है.  


शुक्रवार, 2 जुलाई 2021

५८५.युद्ध के विरुद्ध



मैं युद्ध के विरुद्ध हूँ.

जो युद्ध की वकालत करते हैं,

उन्हें मरने का ख़तरा नहीं होता,

वे चाहते हैं कि दूसरे लोग आगे आएँ 

और सीने पर गोलियाँ खाएँ।


उनकी माँओं को डर नहीं होता 

कि सूनी हो जाएंगी उनकी गोद,

उनके बच्चों को डर नहीं 

कि वे यतीम हो जाएँगे,

उनकी पत्नियों की मांगों में 

सलामत बना रहेगा सिन्दूर. 


जो युद्ध की वकालत करते हैं,

वे तिरंगे का हवाला देते हैं,

वे जानते हैं कि उन्हें 

कभी नहीं लौटना होगा 

तिरंगे में लिपटकर. 


मैं घृणा करता हूँ युद्ध से

और घृणा करता हूँ उनसे,

जिन्हें युद्ध में जाना नहीं पड़ता,

पर जो युद्ध की वकालत करते हैं.