शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

३३९. सवाल


देख लो आज मुझे चोटी पर,
तारीफ़ कर लो मेरी,
मुस्कराहट है मेरे होठों पर,
लेकिन एक कसक है दिल में -
मरना पड़ा है मुझे बार-बार,
तब पहुँच पाया हूँ इस बुलंदी पर.

आज शिखर पर हूँ मैं,
पर दिल में सवाल है 
कि मर-मर कर ऊपर पहुंचने से 
जीते हुए नीचे रहना 
क्या ज़्यादा अच्छा नहीं है?

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

३३८.भँवर


मैंने खुला छोड़ रखा है 
अपने घर का दरवाज़ा,
इस उम्मीद में 
कि शायद भूला-भटका 
कोई दोस्त आ जाय 
या कोई अति उत्साही 
दुश्मन ही घुस आय.

दोस्त या दुश्मन न सही,
कोई चोर ही सही,
मेरे नीरस एकाकी जीवन में 
कुछ तो चहल-पहल हो,
इस ठहरे सरोवर में 
कोई लहर न सही,
कोई भँवर ही उठे. 

शनिवार, 15 दिसंबर 2018

३३७. हँसो

बंद खिड़की की झिर्री से 
झाँक रही है तुम्हारी 
सहमी-सहमी सी हँसी। 

तुम्हारी हँसी, हँसी कम 
रुलाई ज़्यादा लगती है,
इससे तो बेहतर था,
तुम थोड़ा रो ही लेती। 

हँसना ही है,
तो खोल दो खिड़की,
खोल दो किवाड़,
तोड़ दो ताले,
लाँघ लो देहरी,
फिर पूरे मन से 
बिना डर, बिना झिझक,
दिन-दहाड़े,
खुल कर हँसो। 

हँसना ही है, तो ऐसे हँसो 
कि वे भी निकल आएं दबड़ों से,
जो लंबे अरसे से 
हँसना भूल गए हैं। 



शुक्रवार, 7 दिसंबर 2018

३३६.पौधे


अनुशासित से पौधे 
कितने ख़ुश लग रहे हैं 
और कितने सुन्दर !
बहुत मेहनत की है 
माली ने इन पर,
कतरी हैं इनकी 
पत्तियां-टहनियां,
तब जाकर मिला है इन्हें 
इतना सुन्दर रूप.

कोई पौधों से पूछे 
कि क्या सचमुच ख़ुश हैं वे,
कैसा लगता है 
जब बाँध दिया जाता है उन्हें 
एक सीमित दायरे में,
जहाँ से उन्हें 
पत्ता-भर झाँकने की भी 
अनुमति नहीं है. 

शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

३३५.सुख

आज बहुत ख़ुश हूँ मैं.

लम्बी अँधेरी रात में 
रौशनी दिखी है कहीं,
नीरव घने जंगल में 
कोई चिड़िया चहचहाई है,
भटके हुए राही को 
दिखी है कोई पगडंडी,
घने काले बादलों में 
कोई बिजली चमकी है. 

आज बहुत ख़ुश हूँ मैं,
सालों की यंत्रणा के बाद 
आज मेरी मुट्ठी में आया है 
गेहूं के दाने जितना सुख.

शनिवार, 24 नवंबर 2018

३३४. पिंजरा


पिंजरे में रहते-रहते 
अब चाह नहीं रही 
कि आज़ाद हो जाऊं,
खुले आसमान में उड़ूँ,
देखूं कि मेरे पंखों में 
जान बची भी है या नहीं।

अब हर वक़्त मुझे 
घेरे रहती है चिंता 
कि हवा जो पिंजरे में आ रही है,
कहीं रुक न जाए,
दाना जो रोज़ मिल रहा है,
कहीं बंद न हो जाए,
मिलता रहे मुझे अनवरत 
बस चोंचभर पानी।

अब छोटा हो गया है
मेरी ख़्वाहिशों का दायरा,
न जाने अब मैं क्या हूँ,
पर पंछी तो बिल्कुल नहीं हूँ.

मंगलवार, 20 नवंबर 2018

३३३. अच्छा दिन


बहुत अच्छा दिन है आज.

आँगन में बरसों से 
बंजर खड़ा था जो पेड़,
दो चार फल लगे हैं उसमें,
बेल जो चढ़ गई थी 
अधिकार से छतपर, 
चंद कलियाँ खिल आई हैं उसमें।

मेरी कलम जो गुमसुम थी,
उदास थी कई दिनों से,
आज फिर से चल पड़ी है,
लिख डाली है आज उसने 
एक ठीकठाक सी कविता।

रविवार, 11 नवंबर 2018

३३२. नाविक से


नाविक,
चलो,नाव निकालें,
निकल पड़ते हैं समुद्र में,
खेलेंगे लहरों से,
झेलेंगे तेज़ हवाएं,
थक जाएंगे,
तो लौट आएँगे किनारे पर,
लेट जाएंगे रेत पर,
मुर्दे की तरह चुपचाप,
महसूस करेंगे जीवन,
अनुभव करेंगे आनंद
थककर चूर होने का. 

नाविक, 
चिंता नहीं,
अगर लहरों में खो गए,
हवाओं में भटक गए,
कोई फ़िक्र नहीं,
अगर लौट न पाए,
वैसे भी किनारे पर 
हम ज़िंदा कहाँ हैं?

शुक्रवार, 2 नवंबर 2018

३३१. आनेवाली दिवाली


आनेवाली है दिवाली,
इंतज़ार है दियों का,
हज़ारों-लाखों दिए जलेंगे
जैसे हर साल जलते हैं,
चकाचौंध रोशनी होगी
जैसे हर साल होती है,
पर अगले ही दिन 
बुझ जाएंगे चिराग़,
फैल जाएगा अँधेरा.

काश यह दिवाली थोड़ी अलग हो,
कुछ कम चिराग़ जलें,
पर देर तक जलें,
थोड़ी कम रोशनी हो,
पर दूर रखे अँधेरा 
कम-से-कम कुछ दिन. 

ऐसी भी क्या ख़ुशी,
जो रॉकेट की तरह उठे,
फिर आ गिरे ज़मीन पर,
ख़ुशी हो तो ऐसी,
जैसे आसमान में सितारे,
मद्धम -मद्धम ही सही,
पर रात भर चमकें.  

शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

३३०. सुन्दर लड़की


सुनो, सुन्दर लड़की,
अक़सर तुम मेरे सपने में चली आती हो,
मेरे पास बैठकर बतियाती रहती हो,
कभी हंसती हो,
कभी नाराज़ हो जाती हो,
कभी-कभी अनजाने में 
मेरा हाथ भी थाम लेती हो.

सुनो, सुन्दर लड़की,
वैसे तो तुम दूर-दूर रहती हो,
मुझसे बात करना तो दूर,
मेरी ओर देखती भी नहीं।

किस मिट्टी की बनी हो तुम?
मैंने कभी भी हक़ीक़त में तुम्हें 
मुस्कराते नहीं देखा,
न तुम्हारा गुस्सा देखा है,
न तुम्हारा प्यार,
बस एक अजनबीपन देखा है.

हक़ीक़त में बहुत उबाऊ हो तुम,
पर सपने में बहुत जीवंत,
सुन्दर लड़की,
तुम्हें नहीं मालूम,
तुम्हारी वज़ह से आजकल
मैं सोता बहुत हूँ.

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2018

३२९. रावण की सेल्फ़ी


हर बार जाता हूँ 
रावण का फोटो खींचने 
मैं दशहरे के मेले में,
पर रावण है 
कि बच जाता है 
अच्छे-से-अच्छे कैमरे से. 

सालों बाद समझ पाया हूँ 
कि रावण का फोटो लेना हो,
तो कैमरा अपनी ओर करना पड़ता है,
सेल्फ़ी लेना पड़ता है.

शनिवार, 13 अक्तूबर 2018

३२८.जड़ें

मैंने जड़ों से पूछा,
क्यों घुसी जा रही हो ज़मीन में,
कौन सा खज़ाना खोज रही हो,
किससे छिपती फिर रही हो ?

जड़ों ने कहा,
हमारे सहारे टिका है पेड़,
जुटाना है उसके लिए हमें 
पोषक आहार,
हरे रखने हैं उसके पत्ते,
बनाना है उसे विशाल।

क्या फ़र्क़ पड़ता है,
जो गुमनाम हैं हम?
हमारे लिए इतना बहुत है 
कि हमने थाम रखा है किसी को,
ज़मीन के अंदर ही सही,
किसी की ज़िन्दगी हैं हम.


शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

३२७.चाय


दार्जीलिंग के चाय बागानों में 
फटे-पुराने कपड़े पहने 
भीषण ठण्ड में कांपता 
एक मज़दूर  जानता है, 
निकट है उसका अंत.

गंगाजल थामे हाथों से 
उखड़ती सांसों के बीच 
उसकी डूबती आँखें मांगती हैं 
दार्जीलिंग के बागानों की 
दो घूँट गर्म चाय.

शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

३२६. आदमी


नदी किनारे 
झाड़ियों में खिला
नन्हा-सा फूल,
डाली से जकड़ा,
जन्म से क़ैद,
पर झूमता मुस्कराता।

बिना आराम 
अनवरत बहती नदी,
हमेशा गुनगुनाती,
बिना शिकवा,
बिना शिकायत।

आदमी,
हर हाल में उदास,
सुख में भी,
दुःख में भी,
चलने में भी,
रुकने में भी,
मौत से घबराता,
ज़िन्दगी से परेशान। 


शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

३२५. रास्ते


रास्ते,
कहीं कच्चे, कहीं पक्के,
कहीं समतल, कहीं गढ्ढों-भरे,
कहीं सीधे, कहीं घुमावदार,
अकसर पहुँच ही जाते हैं 
किसी-न-किसी मंज़िल पर.

बस, इसी तरह चलते चलें,
गिरते-पड़ते, हाँफते-दौड़ते,
रोज़ थोड़ा-थोड़ा, 
अनवरत,
पहुँच ही जाएंगे आख़िर,
कहीं-न-कहीं,
कभी-न-कभी.

शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

३२४. अंत


रात बड़ी कंजूस है,
समेट रही है 
अपने आँचल में 
ओस की बूँदें,
नहीं जानती वह 
कि चले जाना है उसे 
ओस की बूंदों को 
यहीं छोड़कर।

ओस की बूँदें भी 
कहाँ समझती हैं 
कि ज़िंदा हैं वे 
बस सूरज निकलने तक,
सोख लिया जाएगा 
उन्हें भी.

सूरज भी न रहे 
किसी मद में,
ढक लेगा उसे भी 
कोई आवारा बादल,
अगर न ढके तो भी 
डूबना होगा उसे 
अंततः 

शनिवार, 1 सितंबर 2018

३२३. बारिश से


बारिश,अब थम भी जाओ.

भर गए हैं नदी-नाले,
तालाब,बावड़ियां,गड्ढे,
नहीं बची अब तुम्हारे लिए 
कोई भी जगह.

अब भी नहीं रुकी तुम,
तो बनाना होगा तुम्हें 
ख़ुद अपना ठिकाना,
उजाड़ना होगा दूसरों को,
क्या अच्छा लगेगा तुम्हें 
यह सब?
क्या अच्छा लगेगा तुम्हें 
कि लोग तुमसे डरें?

बारिश, 
देखो,हमेशा की तरह सजी है 
आसमान की डाइनिंग टेबल,
पर सूरज नहीं कर पा रहा 
नाश्ता या लंच.

सूरज को ज़रा निकलने दो,
बैठने दो आसमान की मेज़ पर,
बारिश, अब थम भी जाओ.

शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

३२२.दूरी


अक्सर कोशिश करके भी 
मैं नहीं लिख पाता कोई कविता,
पर आज तुम नहीं हो,
तो शब्द बरस रहे हैं,
जैसे दूर कहीं पहाड़ों पर 
हल्के-हल्के पड़ रही हो बर्फ़,
सेमल के पेड़ से जैसे 
गिर रहे हों रुई के फ़ाहे,
जैसे रात की रानी गिरा रही हो 
पीली डंडियोंवाले सफ़ेद फूल,
जैसे शरद की रात में 
पत्तियों पर बरस रही हों 
ओस की बूँदें.

आज तुम नहीं हो,
तो उदास हूँ मैं,
लिख रहा हूँ 
एक के बाद एक कविता,
अगर ज़िन्दा रखना है मुझे 
अपने अन्दर का कवि,
तो तुमसे दूरी बहुत ज़रूरी है.

शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

३२१. निर्भरता


मेरे जूतों की नई जोड़ी में 
न जाने कैसे 
एक जूता जल्दी फट गया,
न सिलने लायक रहा,
न चिपकने लायक.

दूसरा जूता बिल्कुल ठीक था,
पर मुझे फेंक देने पड़े 
दोनों जूते,
क्या करता मैं 
उस अकेले जूते का,
जिसमें कोई कमी नहीं थी?

मेरा मन भारी था,
पर कोई चारा नहीं था,
दोनों जूते एक दूसरे पर 
इतने निर्भर थे 
कि एक के बिना दूसरे का 
कोई अस्तित्व ही नहीं था.

शनिवार, 4 अगस्त 2018

३२०.बंदी से


बंदी,
ये पहरेदार जो सो रहे हैं,
दरअसल सो नहीं रहे हैं,
सोने का नाटक कर रहे हैं।


तुम चुपके से निकलोगे,
तो ये उठ जाएंगे,
तुम्हें यातनाएं देंगे,
फिर से बंदी बना लेंगे।


मुक्त होना चाहते हो,
तो साहस करो,
ज़ोर की आवाज़ के साथ
तोड़ दो किवाड़,
निकल जाओ यहां से
सीना तान के,
पहरेदार सोने का
नाटक करते रहेंगे।


बंदी,
तुम्हारी मुक्ति का
यही एकमात्र उपाय है।

शुक्रवार, 27 जुलाई 2018

३१९.बारिश में


आओ, बारिश में निकलें,
तोड़ दें छाते,
फाड़ दें रेनकोट,
भिगो लें बदन.

सड़क के गड्ढों में 
पानी जमा है,
देखते हैं 
उसमें उछलकर 
कैसा लगता है.

देखते हैं 
कि बंद पलकों पर 
जब बूँदें गिरती हैं,
तो कैसी लगती हैं,
जब बरसते पानी से
बाल तर हो जाते हैं,
तो कैसा लगता है.

कैसा लगता है,
जब कपड़े गीले होकर
बदन से चिपक जाते हैं, 
जब  बरसती बूँदें कहती हैं,
'बंद करो अपनी बातचीत,
अब मेरी सुनो.'

आओ, निकल चलें बारिश में,
निमोनिया होता है,
तो हो जाय,
सूखे-सूखे जीने से 
भीगकर मर जाना अच्छा है.

शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

३१८. सफ़र में


उतार दो गठरियाँ
अंधविश्वासों की,
कट्टरता की,
पूर्वाग्रहों की.

फेंक दो संदूक 
ईर्ष्या और द्वेष के,
नफ़रतों के,
बदले की भावना के. 

ज़िन्दगी का सफ़र लम्बा है,
सामान की यहाँ
कोई सीमा नहीं है,
पर हल्के चलो,
सहूलियत होगी.

शनिवार, 14 जुलाई 2018

३१७. एसेंस

वह जो कोने में 
गुमसुम सी लड़की बैठी है,
बहुत सहा है उसने,
बहुत लोगों ने तोड़ा है 
भरोसा उसका,
फ़ायदा उठाया है हर तरह से.

अब कुछ नहीं बोलती 
वह लड़की,
उसे नहीं लगता 
कि कोई सुननेवाला है,
हालाँकि कहने को 
बहुत कुछ है उसके पास.

अब वह लड़की 
प्रतिरोध नहीं करती,
ताक़त ही नहीं है उसमें,
जब भी प्रतिरोध किया,
बेरहमी से कुचला गया उसे.

अब वह लड़की रोती नहीं,
आंसू सूख गए हैं उसके,
पूरी ज़िन्दगी का रोना 
थोड़े समय में ही रो लिया है उसने,
अब पत्थर हो गई है वह लड़की.

कभी भूले-भटके 
कोई हमदर्द मिल जाय,
जो लड़की के दिल को छू ले,
तो एक आंसू छलक आता है 
उसके पलकों की कोर पर.

यह महज़ एक बूँद नहीं है,
लड़की अपने अन्दर 
जिस असीमित वेदना को 
छिपाए हुए है,
यह आंसू उसका एसेंस है.


शुक्रवार, 6 जुलाई 2018

३१६. असमंजस

बहुत संभलकर बोलता हूँ मैं,
तौलता हूँ शब्दों को बार-बार,
पर लोग हैं 
कि निकाल ही लेते हैं
मेरे थोड़े-से शब्दों के 
कई-कई अर्थ.

जब मैं कुछ नहीं बोलता,
तो भी निकाल लिए जाते हैं 
मेरी चुप्पी के कई-कई अर्थ.

अलग-अलग लोग 
मेरी चुप्पी 
या मेरे शब्दों के 
अलग-अलग अर्थ निकालते हैं,
मुझसे अलग-अलग सवाल करते हैं.

मैं असमंजस में हूँ 
कि उनके सवालों का जवाब 
मैं शब्दों में दूं 
या चुप्पी में?

शनिवार, 30 जून 2018

३१५. वह लड़की


शहर के फुटपाथ पर
जब मैं उस छोटी सी लड़की को
मां बाप के बीच सोए देखता हूं,
तो सोचता हूं,
इतनी गाड़ियों के शोर के बीच
उसे नींद कैसे आती होगी।

क्या उसे उन आंखों की पहचान होगी,
जो वहशत से घूरती होंगी उसे,
क्या सोने से पहले कुछ खाया होगा उसने,
क्या भूखे पेट उसे नींद आई होगी।

सुबह उठकर कहां जाएगी वह शौच को
कहां रहेगी वह,
जब चलने लगेंगे फुटपाथ पर लोग,
किसके भरोसे छोड़ कर जाएंगे
काम पर उसके मां बाप।

इन सब सवालों से बेखबर
वह लड़की सोई है फुटपाथ पर
और उसके चेहरे पर
एक मासूम सी मुस्कान है।

शनिवार, 23 जून 2018

३१४.महाराजा

वे महाराजा हैं,
वही करेंगे,
जो करना चाहेंगे,
इक्कीसवीं सदी के हैं,
इसलिए थोड़ा नाटक करेंगे,
जताएंगे
कि वे पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं हैं,
खुले मन से तुम्हें सुनना चाहते हैं,
पर तुम चुप रहना।

किसी का बोलना उन्हें
पसंद नहीं है,
तुम कितना भी संभल कर बोलो,
न जाने उन्हें क्या बुरा लग जाए.


कायदे-कानून की बात मत करना,
ये उनके लिए नहीं बने हैं,
उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं
कि कोई उन्हें
उन नियमों की याद दिलाए
जो उन्होंने खुद बनाए हैं
तुम्हारे और मेरे लिए।

ज़्यादा बोलोगे
तो उन्हें ज़्यादा लिखना पड़ेगा
सोचना पड़ेगा
कि तुम्हारे तर्कों को कैसे काटें
कैसे तुम्हें सबक सिखाएं,
कैसे खुद को सही ठहराएं।

अपना मुंह बंद,
नज़रें नीची रखना,
मत भूलना
कि वे राजा हैं
और तुम कुछ भी नहीं,
प्रजा भी नहीं।

शनिवार, 16 जून 2018

३१३. अमलतास से


अच्छे लगते हो तुम अमलतास,
जब खिल उठते हो वसंत में,
पर मैं जब तुम्हें देखता हूं,
तो सोचता हूं
कि तुम इतने पीले क्यों हो.

तुम सुंदर तो बहुत हो,
पर कमज़ोर भी लगते हो,


मेरी मानो अमलतास,
तो बगल में खड़े गुलमोहर से
थोड़ी सी सुर्ख़ी ले लो,
सुंदर भी लगोगे, ताकतवर भी,
वरना बेवजह पत्थर झेलोगे.

जो कमज़ोर दिखते हैं,
उन्हें अपनी ख़ूबियों के बावज़ूद
पत्थर खाने ही पड़ते हैं.

शनिवार, 9 जून 2018

३१२. तितलियां


आजकल ख़तरे में हैं तितलियां।

आजकल कोई भी, 
कहीं भी,
किसी भी तितली के
पर नोच सकता है,
महफूज़ नहीं हैं आजकल तितलियां।

नहीं मिलती आजकल
रंग - बिरंगी,मस्त,
उड़नेवाली तितलियां,
ऐसी तितलियों पर
प्रतिबंध है आजकल।

खुले घूमते हैं नोचने वाले,
तितलियों से पूछा जाता है,
क्या किया उन्होंने
कि नोच लिए गए उनके पर।

दरवाजे बंद हैं सब
तितलियों के लिए,
अब ख़ुद ही करनी होगी उन्हें 
अपने परों की हिफाज़त,
तमाम तितलियों के लिए
यह परीक्षा का समय है।

रविवार, 27 मई 2018

३११. बारिश


क्या तुमने कभी रात में 
बिस्तर पर लेटे-लेटे
छत पर टपकती 
बारिश की बूंदों को सुना है?

कभी धीरे से,
तो कभी ज़ोर से
बारिश की बूँदें 
तुम्हें पुकारती हैं,
तुमसे बात करना चाहती हैं,
पर तुम जागकर भी 
कुछ सुन नहीं पाते.

कहीं नाराज़ न हो जाएं 
ये बारिश की बूँदें,
छोड़ न दें 
तुम्हारी छत पर बरसना,
पर क्या फ़र्क पड़ेगा तुम्हें,
तुम्हें तो मालूम ही नहीं 
कि छत पर बरसती बूंदों का 
संगीत कैसा होता है?

मेरी मानो,
कंक्रीट की छत हटा दो,
टीन की डाल लो,
इतनी ग़रीबी में भी क्या जीना 
कि बारिश की आवाज़ भी न सुने.

शनिवार, 5 मई 2018

310. लोग

बड़े स्वार्थी होते हैं लोग,
अपना काम हो,
तो गधे को भी 
बाप बना लेते हैं,
काम निकल जाने के बाद 
दूध से मक्खी की तरह 
निकाल फेंकते हैं 
किसी को भी.

एहसानफ़रमोश होते हैं लोग,
धोखेबाज़ भी,
ज़रूरत पड़े,
तो किसी की भी पीठ में 
छुरा भोंक सकते हैं.

दोगले होते हैं लोग,
अपने लिए उनके नियम अलग 
और दूसरों के लिए अलग होते हैं,
अंदर से वे वैसे नहीं होते,
जैसे बाहर से दिखते हैं,
वे कहते कुछ और हैं, 
सोचते कुछ और हैं.

मुझे पूरा यक़ीन है
कि जो मैंने कहा है,
बिल्कुल सही है,
क्योंकि मैं ख़ुद भी 
ऐसा ही हूँ.

गुरुवार, 26 अप्रैल 2018

309. इंसान

वह आदमी,
जिससे मैं सुबह मिला था,
कमाल का इंसान था,
बड़ा दयावान,
बड़ा संवेदनशील,
किसी का बुरा न करनेवाला,
किसी का बुरा न चाहनेवाला,
सब की खुशी में खुश,
सबके दुख में दुखी.

वही आदमी जब शाम को मिला,
तो बदला हुआ था,
निहायत घटिया किस्म का,
दूसरों के दर्द से बेपरवाह,
स्वार्थी, संवेदनहीन,
पीठ में छुरा भोंकनेवाला।

मैं सोचता हूँ,
सुबह का इंसान 
शाम तक अमानुष कैसे बन जाता है,
सचमुच आसान नहीं होता 
इन्सानों को समझना. 

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2018

३०८. पीढियां

मेरी नानी चाहती थी 
कि कुछ आदतें  
उनसे उनकी बेटी को मिले, 
पर मेरी माँ ने मेरी नानी से 
थोड़ी-सी आदतें ही लीं.

मेरी माँ भी चाहती थी 
कि मैं उनसे अपनी नानी की 
थोड़ी-सी आदतें ले लूं,
पर या तो मैं ले नहीं पाई 
या लेना ही नहीं चाहती थी.

अब मुझमें मेरी नानी का 
खून तो बहुत है,
पर उनका कोई गुण,
कोई आदत
शायद ही मिले. 

हर अगली पीढ़ी 
पिछली पीढ़ी से 
इसी तरह अलग हो जाती है,
पीढ़ियों के बीच बस 
खून का रिश्ता चलता रहता है.

शनिवार, 14 अप्रैल 2018

३०७.अँधेरा

कल रात बहुत बारिश हुई,
धुल गया ज़र्रा-ज़र्रा,
चमक उठा पत्ता-पत्ता,
बह गई राह की धूल,
निखर गई हर चीज़,
पर अँधेरा पहले-सा ही रहा,
छू भी नहीं पाई उसे 
बारिश की बूँदें.

जब बारिश थमी,
तो अँधेरा उतना ही घना था,
उसे भिगोना संभव नहीं था,
उसे भगाना ज़रूरी था,
उससे निपटने के लिए 
बारिश की नहीं, 
सूरज की ज़रूरत थी.

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2018

306.अन्याय के खिलाफ़


जब तक बैठा था दुम दबाकर,
दुःखी था मैं,
वार पर वार हो रहे थे,
पर खामोश था मैं,
चुपचाप सह रहा था,
कुछ कह नहीं रहा था,
डर रहा था 
कि कहीं कह दिया,
तो हमले बढ़ न जांय.

आत्म-ग्लानि में था मैं,
मिला नहीं पा रहा था 
ख़ुद से नज़रें,
मेरा ही अक्स 
मुझे कह रहा था,
'कायर, डरपोक'.

अब दूर कर दिया है 
मैंने डर को ख़ुद से,
अन्याय के खिलाफ़ 
आवाज़ उठा रहा हूँ मैं,
वार तो बढ़ गए हैं,
पर मैं उठ गया हूँ
अपनी ही नज़रों में
और महसूस कर रहा हूँ 
कि न्याय के लिए लड़ने में 
बहुत सुख है.

रविवार, 1 अप्रैल 2018

३०५. हथियार


तुम्हारे तीरों के प्रहार से 
छिटक गई है मेरी ढाल,
पर अभी बची हुई हैं 
मेरी हथेलियाँ,
जो होती रहेंगी छलनी,
रोकती रहेंगी तुम्हारे तीर.

जब नहीं रहेंगी हथेलियाँ,
तब भी बचा रहेगा मेरा सीना,
झेलता रहेगा तुम्हारे तीर.

जीते जी नहीं हरा पाएंगे 
तुम्हारे ये तीर मुझे,
अगर सच में जीतना चाहते हो,
तो आजमाओ मुझ पर 
कोई कोमल हथियार.

शुक्रवार, 23 मार्च 2018

३०४. विराट

पेड़ की डालियों के स्टम्प बनाकर
ईंट-पत्थरों की सीमा-रेखा के बीच 
वह छोटा-सा लड़का सुबह से शाम तक 
रबर की गेंद से क्रिकेट खेलता है.

सब उसे नकारा समझते हैं,
पर उसकी माँ को यकीन है 
कि उसकी मेहनत रंग लाएगी,
उसका निश्चय उसे तराशेगा.

लड़के की माँ कभी अपना टूटा घर 
कभी अपने फटे कपड़े देखती है,
उसे यकीन है कि एक दिन 
उसका बेटा ज़रूर विराट बनेगा.

शुक्रवार, 16 मार्च 2018

३०३.वसंत की दस्तक




वसंत ने दस्तक दी है,
हल्की-सी ठण्ड लिए 
धीरे-से हवा चली है.

कांप उठे हैं नए कोमल पत्ते,
मत रोको उन्हें,
कुछ ग़लत नहीं है उनके सिहरने में,
इस उम्र में और इस मौसम में 
ऐसा ही होता है.

अगर रोकोगे उन्हें,
तो पीले पड़ जाएंगे,
बिल्कुल तुम जैसे हो जाएंगे.

शनिवार, 10 मार्च 2018

३०२. पिता

पिता, तुम्हारे जाने के बाद मैंने जाना 
कि तुम मेरे लिए क्या थे.

जब तुम ज़िन्दा थे,
पता ही नहीं चला,
चला होता, तो कह देता,
बहुत ख़ुश हो जाते तुम,
मैं भी हो जाता 
अपराध-बोध से मुक्त.

पिता, ऐसा क्यों होता है 
कि पूरी ज़िन्दगी गुज़र जाती है 
और हम समझ ही नहीं पाते 
कि कौन हमारे लिए क्या है.

शनिवार, 3 मार्च 2018

३०१. आमंत्रण


आओ, बना लो घोंसले कहीं भी,
किसी भी डाल पर,
किसी भी कोने में,
जहाँ भी तुम्हें जगह मिले.

मत सोचो कि कैसे बनेंगे 
इतने घोंसले मुझ पर,
ज़रा कमज़ोर दिखता हूँ,
पर गिरूँगा नहीं,
मरूंगा नहीं,
कितने ही घोंसले क्यों न बन जायँ मुझ पर.

क्या फ़ायदा मेरी डालियों का,
मेरे पत्तों का,
अगर तुम्हारे बसेरे न हों उनमें?
इसलिए कहता हूँ,
स्वागत है तुम्हारा,
अपने कलरव से भर दो मेरी ज़िन्दगी,
घोंसले बना लो मुझमें.

बुधवार, 28 फ़रवरी 2018

३००. होलिका दहन

क्या जला रहे हो इस बार 
होलिका दहन में?
गोबर के उपले?
कोयला, लकड़ियाँ?
बस यही सब?

जला देना इस बार 
थोड़ा-सा अहम्,
थोड़ा-सा गुस्सा,
थोड़ा-सा लालच,
थोड़ा-सा स्वार्थ.

और ध्यान रहे,
प्रह्लाद को बचाने में 
इतना न खो जाना 
कि जल जाय 
तुम्हारा स्वाभिमान,
राख हो जाय 
तुम्हारी संवेदना.

इस बार होलिका दहन में 
कुछ और बचे न बचे,
बचा लेना किसी भी तरह 
अपनी आत्मा,
अपनी इंसानियत.

मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

२९९. मेरे कस्बे का स्टेशन

मेरे कस्बे के स्टेशन पर
एक इकलौती ट्रेन रूकती है,
मुसाफ़िर उतरते हैं,
मुसाफ़िर चढ़ते हैं,
इंतज़ार करते हैं उसके पहुँचने का.

कुछ चायवाले, कुछ समोसेवाले,
पान-बीड़ी,मूंगफलीवाले,
न जाने कौन-कौन 
क्या-क्या बेचते हैं प्लेटफ़ॉर्म पर.

स्टेशन के पास उग आए हैं 
कुछ छोटे-छोटे ढाबे,
ठहरने के लिए कुछ मामूली होटल,
ऊंघते दिख जाते हैं यहाँ 
कुछ रिक्शे, कुछ ठेले. 

ट्रेन आती है, चली जाती है,
उसे नहीं मालूम 
कि कितना कुछ दे दिया है उसने
मेरे इस छोटे से कस्बे को.

शनिवार, 24 फ़रवरी 2018

२९८. अनकहा

कभी कुछ कहना चाहो,
तो कह देना,
मैं बुरा नहीं मानूंगा,
अच्छा ही लगेगा मुझे.

कहाँ छुप पाता है कुछ अनकहा,
जो कोई कहना चाहता हो,
शब्दों में न सही,
आँखों में तो झलक ही जाता है.

आधा अधूरा व्यक्त हो,
अटकलों को जन्म दे,
ग़लतफ़हमियाँ फैलाए,
इससे तो अच्छा है 
कि फूटकर बह निकले 
मवाद की तरह,
किसी एक को तो चैन मिले.

शनिवार, 17 फ़रवरी 2018

२९७.अलाव

आओ, अलाव जलाएँ,
सब बैठ जाएँ साथ-साथ,
बतियाएँ थोड़ी देर,
बांटें सुख-दुख,
साझा करें सपने,
जिनके पूरे होने की उम्मीद 
अभी बाक़ी है.

हिन्दू, मुसलमान,
सिख, ईसाई,
अमीर-गरीब,
छोटे-बड़े,
सब बैठ जाएँ 
एक ही तरह से,
एक ही ज़मीन पर,
खोल दें अपनी 
कसी हुई मुट्ठियाँ,
ताप लें अलाव.

घेरा बनाकर तो देखें,
नहीं ठहर पाएगी 
इस अलाव के आस-पास 
कड़ाके की ठंड.

शनिवार, 3 फ़रवरी 2018

२९६.अँधेरे में

ऐसा क्यों होता है 
कि कुछ लोगों को हमेशा 
अँधेरे में रहना पड़ता है 
और कुछ के जीवन से 
उजाला दूर ही नहीं होता?

क्या ऐसा संभव नहीं 
कि सब हमेशा उजाले में रहें?
अगर नहीं, तो कम-से-कम इतना हो जाय 
कि हरेक के हिस्से में 
समान अँधेरा और उजाला हो.

अगर यह भी संभव नहीं,
तो आओ, ख़ुदा से कहें 
कि अपना उजाला वापस ले ले 
और सब को एक साथ,एक तरह से 
अँधेरे में ही रहने दे.

शुक्रवार, 26 जनवरी 2018

२९५. तुम्हारे ख़त


तुम्हारे प्रेमपत्र सहेज के रखे हैं मैंने,
सालों से उन्हीं को पढता हूँ बार-बार,
अपनी लिखावट में दिखाई पड़ती हो तुम,
लगता है जैसे तुमसे मुलाकात हो गई.

अब पीले पड़ गए हैं ये काग़ज़,
उजड़-सी गई है सियाही इनकी,
पर किसी भी तरह बचाना है इन्हें,
ज़िन्दा रखना है इन ख़तों को उम्रभर.

पत्र तो अब भी आते हैं तुम्हारे,
पर मेल से, क़रीने से छपे अक्षरों में,
जिनमें तुम्हारी वह झलक नहीं मिलती,
जो तुम्हारी बेतरतीब लिखावट में है.

शनिवार, 20 जनवरी 2018

२९४. जीवन और मृत्यु

नई जगह,
नई डगर,
चारो ओर छाया है 
घनघोर अँधेरा,
कहीं कोई किरण नहीं,
न ही किरण की उम्मीद,
कहीं कोई आवाज़ नहीं,
परिंदे भी चुप हैं.

अब आगे जाऊं या पीछे,
दाएं जाऊं या बाएँ,
ख़तरा किधर है, पता नहीं,
मंजिल किस ओर है, क्या मालूम.

तो क्या मैं रुक जाऊं?
बैठ जाऊं?
इंतज़ार करूँ अनंत तक रौशनी का?
नहीं, यह संभव नहीं,
भले कुछ भी हो जाय,
भले मैं लड़खड़ा जाऊं,
गिर जाऊं, मर जाऊं,
मुझे चलना ही है,
चलना ही जीवन है
और रुकना मृत्यु. 

शुक्रवार, 12 जनवरी 2018

२९३. सर्द सुबह से दो-दो हाथ


बड़ी सर्द सुबह है आज,
न जाने कहाँ है सूरज,
कोई उम्मीद भी नहीं
कि वह उगेगा,
लगता है, छिप गया है कहीं,
डर गया है सूरज 
इस सर्द सुबह से.

बहुत हो गया इंतज़ार,
कब तक रहेंगे किसी और के भरोसे,
कब तक बैठेंगे 
हाथ पर हाथ धरे,
अब ख़ुद ही बनना होगा सूरज,
ख़ुद ही पैदा करनी होगी ऊष्मा.

समय आ गया है 
कि कमर कस लें,
भिड़ जायँ इस सर्द सुबह से,
फिर हार हो या जीत,
जो हो, सो हो.

शुक्रवार, 5 जनवरी 2018

२९२. सोना बंद करो

फुटपाथ पर सोनेवालों,
तुम मकानों में क्यों नहीं सोते?
मकान नहीं, तो झुग्गियों में,
वह भी नहीं, तो पेड़ों पर,
पानी में, हवा में - कहीं भी.

फुटपाथ पर सोनेवालों,
तुम सोते ही क्यों हो?
जब सोने की जगह नहीं,
तुम होते ही क्यों हो?

क्या तुम नहीं जानते 
कि फुटपाथ पर सोना ख़तरनाक है,
कानूनन अपराध है?

नहीं सोना कानूनन अपराध नहीं है,
इसमें ख़तरा भी कम है,
इसलिए अपने भले के लिए 
फुटपाथ पर सोनेवालों,
सोना बंद करो.