शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

३२२.दूरी


अक्सर कोशिश करके भी 
मैं नहीं लिख पाता कोई कविता,
पर आज तुम नहीं हो,
तो शब्द बरस रहे हैं,
जैसे दूर कहीं पहाड़ों पर 
हल्के-हल्के पड़ रही हो बर्फ़,
सेमल के पेड़ से जैसे 
गिर रहे हों रुई के फ़ाहे,
जैसे रात की रानी गिरा रही हो 
पीली डंडियोंवाले सफ़ेद फूल,
जैसे शरद की रात में 
पत्तियों पर बरस रही हों 
ओस की बूँदें.

आज तुम नहीं हो,
तो उदास हूँ मैं,
लिख रहा हूँ 
एक के बाद एक कविता,
अगर ज़िन्दा रखना है मुझे 
अपने अन्दर का कवि,
तो तुमसे दूरी बहुत ज़रूरी है.

शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

३२१. निर्भरता


मेरे जूतों की नई जोड़ी में 
न जाने कैसे 
एक जूता जल्दी फट गया,
न सिलने लायक रहा,
न चिपकने लायक.

दूसरा जूता बिल्कुल ठीक था,
पर मुझे फेंक देने पड़े 
दोनों जूते,
क्या करता मैं 
उस अकेले जूते का,
जिसमें कोई कमी नहीं थी?

मेरा मन भारी था,
पर कोई चारा नहीं था,
दोनों जूते एक दूसरे पर 
इतने निर्भर थे 
कि एक के बिना दूसरे का 
कोई अस्तित्व ही नहीं था.

शनिवार, 4 अगस्त 2018

३२०.बंदी से


बंदी,
ये पहरेदार जो सो रहे हैं,
दरअसल सो नहीं रहे हैं,
सोने का नाटक कर रहे हैं।


तुम चुपके से निकलोगे,
तो ये उठ जाएंगे,
तुम्हें यातनाएं देंगे,
फिर से बंदी बना लेंगे।


मुक्त होना चाहते हो,
तो साहस करो,
ज़ोर की आवाज़ के साथ
तोड़ दो किवाड़,
निकल जाओ यहां से
सीना तान के,
पहरेदार सोने का
नाटक करते रहेंगे।


बंदी,
तुम्हारी मुक्ति का
यही एकमात्र उपाय है।