शनिवार, 10 सितंबर 2016

२२७. सेकेण्ड की सूई


मैं सेकेण्ड की सूई की तरह 
तेज़-तेज़ घूमता रहता हूँ,
पर हर बार ख़ुद को वहीँ पाता हूँ,
जहाँ मंथर गति से घूमनेवाली 
मिनट और घंटे की सूइयां होती हैं.

मैंने सोचा कि क्या मेहनत बेकार है,
क्यों मैं बार-बार वहीँ पहुँच जाता हूँ,
जहाँ मिनट और घंटे की सूइयां होती हैं,
क्यों मुझे नहीं मिलती कोई नई मंजिल.

जीवनभर घूमने के बाद मैं समझा 
कि मेहनत ही सब कुछ नहीं होती,
ज़रूरी है परिधि से बाहर निकलना,
ज़रूरी है उस खूंटे को तोडना 
जिससे बंधकर हम तेज़-तेज़ घूमते हैं.

9 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त जी की १२९ वीं जयंती“ , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. कमाल की बात कही है इस कविता के माध्यम से... एक प्रेरक रचना!

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  3. Came here while compiling the next edition of Directory of Best Hindi Blogs. Nice poems indeed!

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  4. प्रेरित करती आपकी यह रचना वास्तव में सीख दे रही है कि कैसे आगे बढ़ सकते है ....

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  5. सच है परिधि को तोडना होता है हर वर्जना को तोडना होता है ...

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