शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

२३०. प्यार

बहुत चाहता हूँ मैं तुम्हें,
ख़ुद से भी ज़्यादा,
कोई फ़िल्मी डायलाग नहीं है यह,
हकीक़त है,
जैसे किस्से कहानियों में
राजा की जान तोते में होती थी,
मेरी तुममें है.

सब कहते हैं
कि तुम्हारे लिए मेरा प्यार
उनकी समझ से परे है,
सब कहते हैं
कि तुम इतना प्यार डिज़र्व नहीं करते,
सच कहूं ,
तो मुझे भी यही लगता है,
पर प्यार यह देखकर तो नहीं होता
कि कौन उसके लायक है
और कितना.

मैं जानता हूँ
कि तुम उतने प्यार के हक़दार नहीं
जितना मैं तुम्हें करता हूँ,
पर मैं चाहूं भी
तो कुछ नहीं कर सकता,
क्योंकि यह मैं नहीं,
मेरा दिल है,
जो तुम्हें प्यार करता है.

शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

२२९. पिता

पिता, तुम क्यों गए अचानक,
भला ऐसे भी कोई जाता है?
न कोई इशारा,
न कोई चेतावनी,
जैसे उठे और चल दिए.
तुम थोड़ा बीमार ही पड़ते,
तो मैं थोड़ी बातें करता,
थोड़ी माफ़ी मांगता,
तुम्हें बताता 
कि मैंने कब-कब झूठ बोला था,
कब-कब विश्वास तोड़ा था तुम्हारा,
कि मैं वह नहीं था,
जो तुम सोचते थे कि मैं था.
विस्तार से बताता तुम्हें वह सब
जो बताना चाहता था,
समय नहीं होता जो तुम्हारे पास,
तो कम-से-कम इतना ही कह देता 
कि पिता, मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ.

शनिवार, 17 सितंबर 2016

२२८. नमक

बहुत काम की चीज़ हूँ मैं,
थोड़ा सा खर्च होता हूँ,
पर स्वाद बढ़ा देता हूँ,
भारी हूँ सब मसालों पर.

घुल-मिल जाता हूँ आसानी से,
बिना किसी नाज़-नखरे के,
फिर भी ख़ास क़ीमत नहीं मेरी,
अपमान अनदेखी से दुखी हूँ मैं.

बहुत देर लगी मुझे समझने में 
कि जो आसानी से मिल जाता है,
वह कितना भी अच्छा क्यों न हो,
उसकी कद्र नहीं होती.

शनिवार, 10 सितंबर 2016

२२७. सेकेण्ड की सूई


मैं सेकेण्ड की सूई की तरह 
तेज़-तेज़ घूमता रहता हूँ,
पर हर बार ख़ुद को वहीँ पाता हूँ,
जहाँ मंथर गति से घूमनेवाली 
मिनट और घंटे की सूइयां होती हैं.

मैंने सोचा कि क्या मेहनत बेकार है,
क्यों मैं बार-बार वहीँ पहुँच जाता हूँ,
जहाँ मिनट और घंटे की सूइयां होती हैं,
क्यों मुझे नहीं मिलती कोई नई मंजिल.

जीवनभर घूमने के बाद मैं समझा 
कि मेहनत ही सब कुछ नहीं होती,
ज़रूरी है परिधि से बाहर निकलना,
ज़रूरी है उस खूंटे को तोडना 
जिससे बंधकर हम तेज़-तेज़ घूमते हैं.

शनिवार, 3 सितंबर 2016

२२६. आसमान में अक्स

चाँद, कितने भोले हो तुम,
झील में घुसकर सोच रहे हो 
कि छिप जाओगे.

छिपे भी तो कहाँ ? पानी में ?
छिपने की सही जगह तो तलाशते,
अपनी आभा ही कम कर लेते,
आभा कम हो, तो छिपना आसान होता है.

यहाँ तो तुम साफ़ दिख रहे हो,
लगता है, तुमने पानी ओढ़ लिया है
ताकि तुम और निखर जाओ,
ताकि तुम साफ़-साफ़ नज़र आओ.

चाँद, कितने भोले हो तुम,
झील में छिपे बैठे हो,
इतना भी नहीं जानते 
कि तुम्हारा तो अक्स भी 
आसमान में साफ़ नज़र आता है.