शनिवार, 2 जुलाई 2016

२२०. अपराध-बोध

अब नहीं रहा वह पढ़ने का सुख,
किताबों की सोहबत में जागने का सुख,
पढ़ते-पढ़ते ख़ुद को भूल जाना,
कभी हँसना,कभी रोना, कभी सहम जाना,
कभी पीठ के बल, तो कभी पेट के बल,
हथेलियों में किताब थामे लेट जाना,
आँख लगते ही किसी बच्चे की तरह 
किताब का पेट पर चुपचाप सो जाना.

अब मैं हूँ, मेरा लैपटॉप, मेरा मोबाइल है,
देर रात तक जागता हूँ अब भी,
घूमता हूँ इन्टरनेट की दुनिया में,
पढ़ता हूँ कुछ काम की बातें, कुछ बकवास,
फिर सो जाता हूँ थककर
एक अजीब से अपराध-बोध के साथ.

अगली रात फिर वही सिलसिला,
फिर वही लक्ष्यहीनता,
आख़िर में फिर थककर सो जाना,
फिर वही अपराध-बोध.

आजकल मैं अकसर सोचता हूँ
कि अच्छी-बुरी आदत, जो पड़ जाती है,
उसे बदलना इतना मुश्किल क्यों होता है.

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