रविवार, 22 मई 2016

२१५. कौन

वे चुप हैं जिनसे उम्मीद थी ख़िलाफ़त की,
कहीं और चलते हैं, अब बचाएगा कौन ?

पहचाना सा लगता है मुझे हर एक चेहरा,
कौन यहाँ दोस्त है, दुश्मन है कौन?

हवाएं लौटी होंगी दरवाज़े से टकराकर,
किसको पड़ी है, यहाँ आएगा कौन?

वो जो हँस रहा है फ़ोटो में खुलकर,
वैसे तो मैं ही हूँ, पर पूछता हूँ कौन?

फुरसत के पलों में कभी सोचना ज़रूर,
जो सब कुछ था कल तक, वो आज है कौन?

मरने को तैयार हूँ मैं किसी भी पल लेकिन,
अजनबियों के शहर में मुझे जलाएगा कौन?

शनिवार, 14 मई 2016

२१४. कांटे

एक नन्हा सा बच्चा,
अपनी धुन में मस्त 
हँसता-खिलखिलाता, 
दौड़ पड़ा बगीचे में 
उस ऊँगली को छुड़ा 
जिसने थाम रखा था उसको .

वहीँ कहीं बेपरवाही से पड़ा 
एक गुलाब का काँटा 
चुभ गया बच्चे के 
छोटे कोमल पांव में. 
बच्चा रोया, चिल्लाया,
साथ ही वह काँटा भी रोया.


कांटे ने कोसा ख़ुद को,
सोचा, चुभने से पहले 
क्यों नहीं सोचता वह 
कि कहाँ चुभना है.

बहुत कोशिश की कांटे ने,
पर निकल नहीं पाया 
बच्चे के पांव से.
उसने दूसरे कांटे से कहा,
चलो, तुम्हीं मेरी मदद करो,
निकालो मुझे बच्चे के पांव से.
जो अपराध मैंने किया है,
उसका निराकरण 
हम काँटों को ही करना है.

शनिवार, 7 मई 2016

२१३. चिता

मैं जुटा रहा हूँ लकड़ियाँ,
सजा रहा हूँ अपनी चिता,
बचा रहा हूँ उसे बारिश से,
पर मौत है कि न आती है,
न बताती है कि कब आएगी.

मुझे भी जल्दी नहीं मरने की,
बस इतनी सी फ़िक्र है 
कि अगर मैं मर गया,
तो अजनबियों के इस शहर में 
कौन मुझे श्मशान ले जाएगा,
कौन मेरी चिता सजाएगा,
कौन उसमें आग लगाएगा. 

अगर थोड़ा भी अंदेशा हो जाए,
तो अपने पैरों पर चलकर जाऊं,
अपनी चिता पर लेट जाऊं
और एक चिंगारी डाल दूं उसमें 
अपनी आख़िरी सांस के साथ.