गुरुवार, 24 मार्च 2016

२०७. इस बार की होली

बड़ी फीकी रही इस बार की होली,
न किसी ने रंग डाला, न गुलाल,
न खिड़की के पीछे छिपकर 
किसी ने कोई गुब्बारा फेंका,
न कोई भागा दूर से 
पिचकारी की धार छोड़कर,
न कोई शरारत, न ज़बरदस्ती,
ऐसी भी क्या होली!

साबुन-तेल सब धरे रह गए,
बड़ी स्वच्छ, बड़ी स्वस्थ रही 
इस बार की होली- नीरस सी,
कब आई,कब गई, पता नहीं.

होली के बाद मैं सोचता हूँ
कि इस साल मैंने दोस्त भी खोए 
और दुश्मन भी,
न दोस्तों ने होली पर याद किया,
न दुश्मनों ने होली का फ़ायदा उठाया.

शनिवार, 19 मार्च 2016

२०६.आम के बौर




अच्छे लगते हैं मुझे आम के बौर,
सुन्दर से,मासूम से, नाज़ुक से
हरे पत्तों से झांकते पीले-पीले बौर.

कुछ बौर झर जाएंगे,
फागुन की तेज़ आँधियों में
या बेमौसम की बरसात में,
पर कुछ झेल लेंगे सब कुछ,
खेल-खेल में उछाले गए पत्थर भी
और बन जाएंगे खट्टी कैरियां
या मीठे रसीले आम.

ये कमज़ोर से बौर बड़े ज़िद्दी हैं,
लड़ लेते हैं मौसम से,
रह लेते हैं ज़िन्दा,
संभावनाओं से भरे होते हैं,
इसलिए बहुत अच्छे लगते हैं.

शनिवार, 5 मार्च 2016

२०५. छोटी-सी ख़ुशी

ठंडी-ठंडी सुबहों में घुल गई है 
हल्की-सी गर्माहट,
जैसे किसी उदास चेहरे पर 
छा जाए थोड़ी-सी मुस्कराहट.
जैसे घुप्प अँधेरे में दिख जाए 
हल्की-सी किरण,
जैसे मनहूस ख़बरों के बीच 
आ जाए कोई शुभ समाचार.
जैसे उजाड़ बगीचे में
खिल जाए कोई खूबसूरत फूल,
जैसे सूखे पेड़ पर 
निकल आए कोई हरा पत्ता. 

छोटी-सी ख़ुशी जो ज़रूरत पर मिले 
बड़ी ख़ुशी से ज़्यादा अच्छी लगती है.