शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

१८४. प्रेम

लोगों को मेरी प्रेम कविताएँ पसंद नहीं,
पर मुझे हमेशा लगता है 
कि मैं प्रेम कविताओं का कवि हूँ. 

मुझे अपनी कविताएँ अच्छी लगती हैं,
जब वे प्रेम के बारे में होती हैं,
पर मैं यह नहीं समझ पाता 
कि जो चीज़ मुझमें है ही नहीं,
वह मेरी कविताओं में कैसे आ जाती है 
और वह भी इतने असरदार तरीक़े से. 

अगर कोई मुझे बता दे 
कि अपनी कविताओं का प्रेम 
मैं अपने स्वभाव में कैसे लाऊँ, 
तो मैं इस बात के लिए तैयार हूँ 
कि फिर कभी प्रेम कविताएँ नहीं लिखूँ. 

शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

१८३. असहाय एकलव्य

अर्जुन, कुरुक्षेत्र में एक युद्ध 
तुमने लड़ लिया, जीत लिया,
गुरु द्रोण को भी मार दिया,
अब तुम्हें राज-पाट चलाना है,
जीत का फल भोगना है,
पर बहुत से धर्म-युद्ध 
अभी भी लड़े जाने हैं. 

अर्जुन, विश्व के सबसे बड़े धनुर्धर,
तुम्हारे पास लड़ने का समय नहीं 
और मैं लड़ नहीं सकता,
क्योंकि मैंने तो अपना अंगूठा 
तुम्हें सर्वश्रेष्ठ बनाने के लिए 
कब का गुरु-दक्षिणा में दे दिया था. 

शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

१८२. अधबना मकान

हमारा प्यार 
जैसे अधबना मकान,
ईंट-ईंट जोड़ी,
दीवारें बनाईं,
सीमेंट,सरिया,
बजरी-रोड़ी,
न जाने क्या-क्या मिलाया,
तब जाकर बना 
यह अधबना मकान। 

फिर क्यों हार मान ली,
क्यों छोड़ दिया अधूरा, 
थोड़ी-सी कोशिश करते 
तो पूरा हो जाता,
घर बन जाता यह 
अधबना मकान. 

अगर अधूरा ही छोड़ना था,
तो शुरू हो क्यों किया ?
जिधर मंज़िल ही नहीं थी,
उधर चले ही क्यों ?
क्यों देखे हमने रंगीन सपने 
जब करना ही नहीं था हमें 
गृह-प्रवेश…