मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

१५१. आनेवाले साल से

नए साल,
क्यों खटखटा रहे हो दरवाज़ा,
क्यों अधीर हो रहे हो तुम,
इतनी भी जल्दी क्या है तुम्हें
पुराने साल को भगाने 
और खुद अंदर आने की. 

कौन सा तीर मार लोगे तुम,
पहले भी बहुत साल आए 
और यूँ ही गुज़र गए 
बिना कुछ कहे, बिना कुछ किए,
फिर मैं कैसे मान लूँ 
कि तुम उनसे अलग हो ?

सुनो, नए साल,
तुमको तो आना ही है,
वैसे ही जैसे पुराना साल आया था,
मैं चाहूँ भी तो तुम्हें रोक नहीं सकता,
पर तुम्हारा स्वागत भी नहीं कर सकता।

हाँ,तुमसे इतना वादा ज़रूर है 
कि अगर तुमने कुछ कर दिखाया 
तो अगले साल तुम्हें 
बहुत शान से विदा करूँगा.  

मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

१५०. असर

मेरे गाँव में अब स्कूल बंद है। 

मांओं ने कह दिया है 
बच्चे स्कूल नहीं जाएंगे,
बच्चे भी डरे-सहमे हैं
कि गए तो लौटेंगे या नहीं. 

बेकार बैठे हैं टीचर,
खाली पड़ी हैं मेज -कुर्सियां,
स्लेट पर अब नहीं मिलता 
चॉक की लिखाई का कोई निशान।

यहाँ की दीवारें खामोश हैं
और दरवाज़े गुमसुम,
नहीं सुनती अब यहाँ 
अजान-सी कोई मासूम हँसी,
अब तो कबूतरों ने भी 
कहीं दूर बना लिए हैं बसेरे. 

पेशावर की घटना के बाद 
मेरे गाँव का स्कूल बंद है,
दरअसल पाकिस्तान  में कुछ भी होता है,
तो मेरे यहाँ उसका बहुत असर होता है. 

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

१४९. दुविधा



लहरें मचल-मचलकर आती हैं,
किनारे को भिगोकर 
फिर समंदर में लौट जाती हैं,
पर उनका मन नहीं भरता,
किनारे से मिलने की चाह 
उन्हें फिर से खींच लाती है. 

अनवरत चलता रहता है 
यह आने-जाने का सिलसिला,
बस लहरों की ऊर्जा 
कभी कम  हो जाती है,
तो कभी ज़्यादा.

मुझे समझ नहीं आता 
कि लहरें तय क्यों नहीं कर लेतीं 
कि उन्हें क्या करना है 
आना है या नहीं, 
बंद क्यों नहीं कर देतीं 
बार-बार आना 
और आकर लौट जाना. 

मैं आज तक नहीं समझ पाया  
कि आखिर प्यार में 
इतनी दुविधा क्यों होती है. 

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

१४८. छुपम-छुपाई

तुम्हें याद हैं न 
वे बचपन के दिन, 
जब हम साथ-साथ खेला करते थे,
अजीब-अजीब से,
तरह-तरह के खेल-
खासकर छुपम-छुपाई. 

मैं कहीं छिप जाता था 
और तुम आसानी से 
मुझे खोज निकालती थी.

मेरे छिपने की जगह 
कितनी भी मुश्किल क्यों न हो,
तुम्हें पता चल ही जाता था,
न जाने कैसे,
मुझे आज तक पता नहीं चला. 

न कपड़ों की सरसराहट,
न कोई बू, न खुश्बू ,
पर तुम हर बार मुझ तक  
पहुँच ही जाती थी.

सुनो, मुझे तब से तुम पर 
बहुत भरोसा है. 
अगर कभी ऐसा हो जाय 
कि मैं कहीं खो जाऊं 
और खुद को ढूंढ न सकूँ 
तो तुम आओगी न?

मैं जानता हूँ 
कि तुम मुझे ज़रूर खोज लोगी 
और कहोगी,'लो, हमेशा की तरह 
मैंने तुम्हें खोज लिया,
अब सम्भालो खुद को
और कभी ऐसी जगह न छिपना 
कि मुझे भागकर आना पड़े,
तुम्हें ढूंढना पड़े,
ताकि तुम फिर खुद से मिल सको'. 









शनिवार, 6 दिसंबर 2014

१४७. नाविक से


नाविक, बीच समंदर में 
किनारे से दूर,
अपनी नाव में एकाकी,
क्या तुम्हें डर नहीं लगता ?

जब लहरों के बीच 
तुम्हारी नाव डगमगाती है,
तुम गीत कैसे गा लेते हो ?
भीषण तूफ़ान की आशंका से 
तुम्हारी घिग्गी क्यों नहीं बँधती ?

नाविक, मैं किनारे पर खड़ा हूँ,
लहरों से बहुत दूर,
समंदर में कभी उतरे बिना ही 
डर से काँपता रहा हूँ,
पर अब सब बदलना चाहता हूँ,
तुम जैसा बनना चाहता हूँ. 

नाविक, इस बार वापस आओ,
तो मुझे भी साथ ले जाना
और छोड़ देना वहां,
जहाँ से किनारा दिखाई नहीं देता. 

रविवार, 30 नवंबर 2014

१४६. पुराने खत

इस  बार तो हद कर दी तुमने,
अपने पुराने खत वापस मांग लिए,
पर ऐसी कई चीज़ें हैं,
जो न तुम मांग सकती हो,
न मैं दे सकता हूँ. 

भीड़ में नज़रें बचाकर 
मेरी ओर उठतीं तुम्हारी निगाहें,
डरी-डरी सी तुम्हारी मुस्कराहटें,
मेरी ओर बढ़ते तुम्हारे ठहरे-से कदम
तुम्हारे कपड़ों की सरसराहट,
तुम्हारी उँगलियों की छुअन -
सब कुछ अब भी मेरे पास है,
तुम्हारे खतों से ज़्यादा महफ़ूज़. 

इसलिए कहता हूँ,
क्या करोगी खत वापस लेकर,
इन्हें मेरे पास ही रहने दो,
उन तमाम यादों की तरह,
जो मैं चाहूँ भी 
तो तुम्हें लौटा नहीं सकता.

शनिवार, 15 नवंबर 2014

१४५. कविता से

कविता, आजकल मैं उदास हूँ,
बहुत दिन बीत गए,
पर तुम आई ही नहीं.

तुम्हें याद हैं न वे दिन,
जब तुम कभी भी आ जाती थी -
मुंह-अँधेरे, दोपहर, शाम - कभी भी,
मुझे सोते से भी उठा देती थी,
जब सारे ज़रुरी काम छोड़कर 
मुझे तुम्हारा साथ देना पड़ता था,
वरना तुम रूठ जाती थी,
मुझे भी तो बहुत भाता था
सब कुछ भूल कर तुम्हारे साथ हो लेना.

देखो, आज फिर से  
मैं कलम-क़ागज़ लेकर तैयार हूँ,
भूल भी जाओ गिले-शिकवे,
पहले की तरह एक बार फिर 
मेरे पास दौड़ी चली आओ.

मेरी उदासी दूर करो, कविता, 
तुम्हें पुराने दिनों का वास्ता.

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

१४४. बुझा हुआ दिया

बुझे हुए दिए ने कहा,
मुझे ज़रा साफ़ कर दो,
थोड़ा तेल डाल दो मुझमें,
एक बाती भी लगा दो,
मुझे तैयार रहना है.

अभी तो सूरज चमक रहा है,
अँधेरा भाग गया है कहीं,
किसी को याद नहीं मेरी,
पर धीरे-धीरे सूर्यास्त होगा,
अँधेरा आ धमकेगा हक़ से,
तब मुझे फिर से जलना होगा.

बीती कई रातों में मैंने
दूर भगाया है अँधेरा,
राह दिखाई है भटकों को,
पर मैं थका नहीं हूँ,
मैं अभी चुका नहीं हूँ,
मैं संतुष्ट नहीं हुआ हूँ.

मैं फिर से जलना चाहता हूँ,
थोड़ी मदद कर दो मेरी,
तेल और बाती डाल दो मुझमें,
लायक बना दो मुझको,
ताकि जैसे ही मेरी ज़रूरत हो,
तुम मुझे प्रज्जवलित कर सको.

गुरुवार, 23 अक्तूबर 2014

१४३. इस बार की दिवाली

दियों की रौशनी कुछ मद्धिम सी है,
रंगोली के रंग कुछ फ़ीके से हैं,
मिठाईयों में मिठास कुछ कम सी है,
नमकीन में नमक कुछ ज़्यादा सा है.

इस बार कुछ भी नहीं है संतुलन में,
कहीं कुछ कम है, तो कहीं कुछ ज़्यादा,
यहाँ तक कि पटाखों में भी इस बार 
ध्वनि-प्रदूषण कुछ ज़्यादा सा है.

उदास-उदास सी है इस बार की दिवाली,
तुम आओ, तो दिवाली ज़रा मुस्कराए.

शनिवार, 18 अक्तूबर 2014

१४२. दिया, हवाओं से


हवाओं, ज़रा धीरे बहो.

अभी बाती बची है मुझमें,
थोड़ा तेल भी शेष है,
सुबह होने में देर है अभी,
मुझे तनिक और जलने दो.

अगर नहीं मानना तुम्हें,
तो कर लो अपनी मर्ज़ी,
लगा लो पूरा ज़ोर,
देखना, कहीं से आएंगी,
दो कोमल हथेलियाँ,
ढांप लेंगी मेरी लौ,
बेबस कर देंगी तुम्हें.

फिर तुम कितना भी तेज़ बहो,
कितना भी ज़ोर लगा लो,
मैं बुझूंगा नहीं,
फिर तो जब तक मुझमें
बाती रहेगी, तेल रहेगा,
जब तक मैं रहूँगा,
मैं जलता रहूँगा.

शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

१४१. दूर से

दूर आसमान में टिमटिमाता 
छोटा-सा सितारा 
मुझे अपनी ओर खींचता है.

मेरा मन करता है 
कि तेज़ हवाएं चलें,
मुझे उड़ा ले जायं 
वहाँ, जहाँ वह सितारा है.

या फिर मैं बादलों के साथ 
भटकता रहूँ इधर से उधर,
ज़रा नज़दीक से देखूं सितारे को.

पर फिर मुझे लगता है 
कि मैं यहीं ठीक हूँ,
यहीं, ज़मीन पर,
सितारे से बहुत दूर,
क्योंकि दूर से जो चीज़
बहुत अच्छी लगती है,
पास से अकसर वैसी नहीं लगती.

अब तो मैं  यही चाहता हूँ  
कि हमेशा ज़मीन से 
देखता रहूँ सितारे को, 
मेरी यह सोच कभी न बदले 
कि वह सितारा 
जो आसमान में चमक रहा है 
कितना सुंदर है !

बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

१४०. आखिरी समय

इतनी जल्दी भी क्या है? 

एक आखिरी मेल लिख लूं,
बस एक ट्वीट कर लूं,
ब्लॉग पर पोस्ट कर लूं,
फ़ेसबुक खोल लूं,
स्टेटस अपडेट कर लूं,
तो फिर चलूँ.

यह सब हो जाय,
फिर भी मोहलत मिल जाय,
तो वह भी कर लूं,
जो कभी कर नहीं पाया, 
जिसके लिए कभी 
वक्त ही नहीं मिला.

थोड़ा समय और मिल जाय,
तो एक नेक काम कर लूं,
बस फिर चलूँ.

शनिवार, 13 सितंबर 2014

१३९. परिवर्तन

अब कोई बहस नहीं होगी,
न कोई अनदेखी, न अपमान.
बात-बात पर रूठ जाना,
हर चीज़ में नुक्स निकालना,
गुस्सा करना, चिड़चिड़ाना,
किस्मत को कोसना,
बेवज़ह की ज़िद करना -
अब सब बदल गया है.

मेरी रोज़-रोज़ की बदतमीज़ियाँ
अब बीते ज़माने की बात हो गई है.

पहले जैसा कुछ भी नहीं रहा,
मेरा बेटा अब बच्चा नहीं रहा,
पिताजी, वह भी जवान हो गया है.

रविवार, 7 सितंबर 2014

१३८. पसंद और प्यार

तुम्हारे हाव-भाव,
तौर-तरीके,चाल-ढाल,
मुझे बिल्कुल पसंद नहीं,
मैं आँखें बंद करके सोचूँ,
तो कुछ भी ऐसा नहीं दिखता,
जो मैं तुममें पसंद कर सकूं,
पर न जाने क्यों,
तुम्हारा दुःख मुझसे 
सहा नहीं जाता,
तुम्हारी थोड़ी-सी तकलीफ़
मुझे बेचैन कर देती है,
न जाने क्यों  
मुझे हर वक्त 
तुम्हारा ख्याल रहता है.

कभी-कभी मैं सोचता हूँ,
काश, मैं तुम्हें प्यार नहीं करता,
जैसे कि मैं तुम्हें पसंद नहीं करता.

शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

१३७. नाटक

बहुत दिन हो गए,
चलो, एक बार फिर 
तुम्हारा हाथ मरोड़ दूं,
बस उतना ही 
कि तुम्हें दर्द न हो,
पर तुम दर्द होने का 
नाटक कर सको.

मैं तुरंत छोड़ दूं तुम्हारा हाथ 
और तुम नाटक कर सको  
मुझसे रूठ जाने का.

मैं तुम्हें मनाऊँ 
और तुम नाटक करो 
न मानने का.
तुम्हारे रूठे रहने पर 
मैं तुमसे रूठने का नाटक करूँ
और घबराकर तुम मुझे मनाओ.

बचपना क्या छोड़ा 
अजनबी हो गए हम,
चलो, कुछ बचकानी हरकतें करें,
थोड़ा-सा नाटक करें,
साथ-साथ चलने के लिए 
थोड़ा बचपना, थोड़ा नाटक 
बहुत ज़रुरी है.

शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

१३६. किनारा लहरों से



लहरों, मुझसे अठखेलियाँ मत करो.

तुम अचानक उछलकर आती हो,
मुझे आलिंगन में जकड़कर
गहरे तक भिगो जाती हो,
जब तक मैं कुछ समझ पाऊँ,
तुम फिर समंदर में खो जाती हो.

खुद को किसी तरह समझाकर 
मैं अलगाव को स्वीकारता हूँ,
पर मेरी भावनाओं से खेलने 
तुम फिर चली आती हो.

लहरों, मुझे बख्श दो,
भ्रमित मत करो मुझे,
मैं खेल का सामान नहीं हूँ,
स्थिर हूँ,स्थिरता चाहता हूँ.

तय करो कि तुम्हें क्या करना है,
अगर आना है तो आ जाओ,
अगर आकर चले जाना है,
तो बेहतर है कि मुझे अकेला छोड़ दो.

शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

१३५. मैं

जो मैं समझता हूँ कि मैं हूँ,
दरअसल मैं वह नहीं हूँ.

मैं वह भी नहीं हूँ,
जो तुम समझते हो 
कि मैं हूँ.

न तुम जानते हो,
न मैं 
कि मैं क्या हूँ.

मेरा मैं 
अनगिनत परतों के नीचे 
कहीं दबा पड़ा है,
जिन्हें हटाकर देखना 
नामुमकिन सा लगता है.

फिर भी कभी  
मुझे पता चल गया 
कि मैं क्या हूँ,
तो तुम्हें बता दूंगा,
तुम्हें भी अगर  
भनक लग जाय
तो मुझे बता देना.

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

१३४. कविता

मन के आसमान में आज 
छाए हैं घने-काले बादल 
विचारों और खयालों के,
तेज़ बह रही हैं 
कल्पनाओं की आंधियां,
फिर भी न जाने क्यों 
बरस नहीं रही एक भी बूँद, 
लिखी नहीं जा रही 
एक भी कविता....

शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

१३३. ख्वाहिश

मैं तुम्हारे जूड़े में खोंसा गया 
एक बेबस फूल हूँ.
लगातार तुम्हारे साथ हूँ,
पर न तुम मुझे,
न मैं तुम्हें देख सकता हूँ.

डाल से अलग हूँ,
एक दिन का मेहमान हूँ,
कल मैं कुम्हला जाऊँगा,
तुम्हारे लायक नहीं रहूँगा.

तुम मुझे खींचकर 
अपने जूड़े से निकालोगी,
किसी गंदे कूड़ेदान में 
या ज़मीन पर फेंक दोगी.

मैं तुमसे नहीं कहूँगा 
कि मुझे जूड़े में रहने दो,
ऐसा कहना अन्याय होगा,
कहूँगा भी तो तुम मानोगी नहीं.

अब एक ही ख्वाहिश है मेरी 
कि मिट्टी में मिलने से पहले 
बस एक बार, सिर्फ़ एक बार 
मैं तुम्हारी नज़रों के सामने रहूँ.

शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

१३२. पेड़



पेड़ कई तरह के होते हैं -
कुछ जो छाया देते हैं,
कुछ जो नहीं देते,
कुछ जो फल देते हैं,
कुछ जो नहीं देते,
कुछ जो मीठे फल देते हैं,
कुछ जो कड़वे -
पर सभी जन्म लेते हैं,
सभी बड़े होते हैं,
आदमियों की तरह.

मैंने सुना है कि
जो पेड़ छाया नहीं देते,
जो पेड़ कड़वे फल देते हैं,
वे अमूमन ज़्यादा जीते हैं.

शुक्रवार, 4 जुलाई 2014

१३१. पत्तों से


कब की थम चुकी बारिश,
पत्तों तैयार रहो,
तमतमाता सूरज निकलने ही वाला है.

ये जो इक्का-दुक्का बूँदें 
अब भी तुमसे चिपकी हैं,
धीरे-धीरे फिसल जाएँगी,
तुम्हें बचा नहीं पाएंगी.

हो सके, तो तुम खुद 
इतने शीतल बनो 
कि कोई जला न सके तुम्हें,
या फिर सहने की ताक़त रखो,
मुस्करा के जलना सीखो,
जलन कम महसूस होगी.

फेंक दो सारी बैसाखियाँ,
अब बस कमर कस लो,
यह ताप तुम्हें अकेले ही सहना है.

शुक्रवार, 20 जून 2014

१३०. आजकल

आजकल मैं कभी-कभी 
तुम्हारे बिस्तर पर लेट जाता हूँ,
मुझे लगता है, मेरी बगल में, 
मेरे साथ, तुम भी लेटे हो, 
चुपचाप...

मैं जब तुम्हारे कमरे में जाता हूँ,
मुझे तुम्हारी सांसें सुनाई देती हैं,
तुम्हारे पसंदीदा सीरियल देखता हूँ,
तो तुम्हारी हंसी सुनाई देती है.

आजकल मैं कभी-कभी 
उन पगडंडियों पर निकल पड़ता हूँ,
जहाँ तुम चला करते थे,
मुझे लगता है,
तुम मेरे साथ चल रहे हो,
बस कुछ पूछने ही वाले हो 
और मैं उत्तर देने को बेताब.

आजकल कभी-कभी 
मैं तुम्हारी पुरानी कमीज़ पहन लेता हूँ,
मुझे लगता है,
तुम मेरे बहुत करीब हो,
बिल्कुल मुझसे चिपके हुए.

अब वह पुरानी कमीज़ 
जगह-जगह से फट गई है,
उसके रंग भी उड़ गए हैं,
रफ़ू के लायक नहीं रही वह,
अब उसे पहनना संभव नहीं.

तुम परदेस क्या गए, 
वहीँ के हो गए,
सालों बीत गए तुम्हें देखे,
अब तो चले आओ.

शुक्रवार, 13 जून 2014

१२९. सूरज



पेड़ों के पीछे से झांकता सूरज
कितना अच्छा लगता है माँ !

देखो, पत्ते हिल रहे हैं,
जैसे रोक लेना चाहते हों 
सूरज की हर किरण,
पर सूरज है कि
पत्तों से छनकर
ज़मीन को छू ही लेता है.

ठीक ही तो है,
भला क्यों मिले सूरज 
सिर्फ़ किसी एक को,
हर किसी के हिस्से में 
उसकी किरण होनी चाहिए.

बस एक बात है माँ,
जो मुझे समझ नहीं आई -
आखिर एक ही सूरज 
इतने पेड़ों के पीछे से 
कैसे झाँक लेता है ?

शनिवार, 31 मई 2014

१२८. पानी सूरज से


मत सोखो मुझे,
यहीं मिट्टी में बहने दो,
प्यासे होंठों को मेरी ज़रूरत है,
बीज प्रस्फुटित होंगे मुझसे,
हरियाली को मेरी ज़रूरत है.

मुझे नहीं जाना कहीं और,
मुझे नहीं उड़ना आसमान में,
मैं नीचे ही ठीक हूँ,
जीवन को मेरी ज़रूरत है.

चलो, नहीं मानते,तो सोख लो मुझे,
ले चलो मुझे आसमान में,
मैं वहाँ खुश नहीं रहूँगा,
इधर से उधर भटकता रहूँगा 
और जैसे ही मौका मिला,
बरस जाऊँगा,
फिर से मिट्टी में मिल जाऊँगा.

रविवार, 25 मई 2014

१२७. आह्वान




बूंदों, आओ, बरस जाओ,
दूर कर दो ताप धरती का,
प्यासों की प्यास बुझा दो.

हर गांव, हर शहर,
हर जाति, हर धर्म,
स्त्री-पुरुष, छोटे-बड़े -
सब पर बरस जाओ.

गरीब की कुटिया पर बरसो,
धनी के महल पर भी,
खेत-खलिहान पर बरसो,
सूखे रेगिस्तान पर भी,
भूखों-नंगों पर बरसो,
संपन्न और तृप्त पर भी.

मेरे पड़ोसी पर बरसो,
थोड़ा-सा मुझ पर भी.

बूंदों, आज ऐसे बरसो 
कि कोई बाकी न रहे,
कोई न कह सके 
कि उसके साथ 
आज फिर भेदभाव हुआ.

शनिवार, 17 मई 2014

१२६. नदी


बहुत बह चुकी मैं हरे-भरे मैदानों में,
खेल चुकी छोटे-सपाट पत्थरों से,
देख चुकी हँसते-मुस्कराते चेहरे,
पिला चुकी तृप्त होंठों को पानी.

अब कोई भगीरथ आए,
मुझे रेगिस्तान में ले जाए,
बहने लगूं मैं तपती रेत पर,
बांटने लगूं थोड़ी ठंडक,थोड़ी हरियाली.

मैं निमित्त बनूँ 
पथराई आँखों में कौन्धनेवाली चमक का,
मुर्दा होंठों पर आनेवाली मुस्कराहट का.

मैदानों में आराम से चलकर 
समुद्र में मिल जाने 
और जीवित रहने से तो अच्छा है 
कि मैं रेगिस्तानी रेत में बहूँ 
और वहीँ मर जाऊं.

शुक्रवार, 9 मई 2014

१२५. पेड़ पथिक से


पथिक, मेरा मन होता है 
कि मेरी छांव में सुस्ताने के बाद 
तुम जब मंजिल की ओर बढ़ो 
तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँ.

मुझे नहीं मालूम 
कि तुम्हारी मंजिल क्या है 
और तुम्हें जाना किधर है,
मैं तो बस तुम्हारी यात्रा में 
सहयात्री बनना चाहता हूँ
ताकि देख सकूं तुम्हारा संकल्प,
दृढ़ निश्चय से भरे तुम्हारे कदम,
तुम्हारा कभी हार न मानना,
बस लगातार चलते जाना,
पर पथिक, मैं मज़बूर हूँ,
मेरी जड़ों ने मुझे 
ज़मीन से जकड़ रखा है.

मुझे तो अपनी जगह खड़े-खड़े 
तुम जैसे पथिकों को छांव देनी है,
मेरी तो यात्रा भी यहीं है 
और मंजिल भी यहीं.


शुक्रवार, 2 मई 2014

१२४. श्राद्ध

इस बार मुझे कुछ संदेह है,
इस बार लगता है श्राद्ध अधूरा रहा.

रीतिपूर्वक सब पकवान बने,
पूजा-अर्चना भी नियम से हुई,
बारह हिंदू ब्राह्मणों ने 
प्रेमपूर्वक भोजन किया,
फिर भी मन में एक खटका है.

पता नहीं, जिन गायों को मैंने ग्रास दिया,
वे हिन्दू थीं या मुसलमान,
और जिन्होंने सबसे पहले पकवान चखे,
वे कौवे कौन थे !

रविवार, 20 अप्रैल 2014

१२३. आकाश


जितना तुम्हें दिखता है,
आकाश सिर्फ़ उतना ही नहीं है.

आकाश तो बहुत विशाल है,
बहुत सुन्दर,विविधता से भरा,
वह कभी कहीं नहीं जाता,
हमेशा वहीँ रहता है,
बस तरह-तरह के रंग दिखाता है,
कभी नीला,कभी लाल,कभी सफ़ेद
और कभी-कभार इन्द्र-धनुषी.

कभी उसपर सितारे बिखर जाते हैं,
कभी चाँद निकल आता है,
कभी सूरज चमक उठता है,
कभी बादल छा जाते हैं.

मैं सच कह रहा हूँ,
आकाश वास्तव में ऐसा ही है,
कभी दीवारों से बाहर निकलो,
कभी खुले में आओ, तो जानो 
कि जिसे तुम पूरा आकाश समझते थे,
वह तो उसका एक छोटा सा टुकड़ा था.

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

१२२. पेड़ पथिक से



तुम्हारे आने की खबर सुनकर 
लो, मैंने विदा कर दिया पतझड़,
समय से पहले बुला लिया वसंत,
कोमल हरे पत्ते ओढ़ लिए,
बिछा दी फूलों की चादर.

पथिक, तुम्हारे काम, तुम्हारे श्रम,
तुम्हारी सेवा-भावना को सलाम,
मंज़िल तक पहुँचने के तुम्हारे निश्चय,
तुम्हारे दृढ संकल्प को सलाम.

बहुत दूर से आ रहे हो तुम,
बहुत दूर जाना है तुम्हें,
थोड़ी देर को भूल जाओ सब कुछ,
थोड़ी देर सुस्ता लो मेरी छांव में,
पथिक, मुझ पर उपकार करो,
मेरा होना सार्थक करो.

शनिवार, 5 अप्रैल 2014

१२१. लौ


इस लौ में सबकी चमक है.

किसी मुस्लिम कुम्हार ने 
इस मिट्टी को गूंधा है,
फिर चाक पर चढ़ाकर 
दिए का आकार दिया है.

किसी सिख ने इसमें 
आकंठ तेल भरा है,
किसी ईसाई ने मेहनत से 
इसकी बाती बनाई है,
फिर किसी हिंदू ने इसे
प्रज्जवलित किया है.

आसान नहीं होता 
अँधेरे को दूर भगाना,
जब सब मिलते हैं,
तब जाकर लौ जलती है.


शनिवार, 29 मार्च 2014

१२०.सीमा

मैं ध्रुवतारा नहीं हूँ,
पर मुझे कमज़ोर मत समझो,
मैं उतना छोटा नहीं हूँ,
जितना ज़मीन से दिखता हूँ.

तुम्हें बरगला रही हैं 
तुम्हारी अपनी सीमाएं,
ज़रा नज़दीक से देखो 
तो तुम्हें पता चले 
कि वास्तव में मैं क्या हूँ.

पर तुम कैसे नज़दीक आओगे,
कितना नज़दीक आओगे,
तुम्हारे नज़दीक आने की सीमा है.

दर्शक, तुम जहाँ हो, वहीँ रहो,
देखते रहो मेरा टिमटिमाना,
इसी सोच में खुश रहो
कि मैं कितना छोटा हूँ,
कितना प्रकाशहीन,
कितना बेबस!

शनिवार, 22 मार्च 2014

११९. मेंढक


मैंने सुना है कि
मेंढक लुप्त हो रहे हैं,
फिर चुनाव के दौरान 
इतने कहाँ से निकल आते हैं?
बिना बारिश के भी 
इनकी टर्र-टर्र क्यों सुनाई पड़ती है?

मुझे नहीं लगता 
कि मेंढक लुप्त हो रहे हैं,
ज़रूर कुछ भ्रम हुआ है,
मुझे तो लगता है 
कि इनकी बहुतायत हो गई है,
बस इनके निकलने और टरटराने का 
मौसम बदल गया है.

शनिवार, 1 मार्च 2014

११८. यह पल


ओस की बूँद ने आखिर 
खोज ही ली फूल की गोद,
अब चाहे तेज़ हवाएं आएं 
उसे गिराने,मिट्टी में मिलाने,
या सूरज की तेज़ किरण 
सोख ले उसे बेरहमी से,
या कोई अनजान हाथ
उसे अलग कर दे फूल से -
ओस की बूँद को परवाह नहीं.

बहुत खुश है वह
कि मंजिल पा ली है उसने,
अब सारे खतरों से बेखबर 
चुपचाप सोई है वह.

आनेवाले पल की चिंता में 
कैसे भूल जाए ओस की बूँद 
कि यह पल सबसे सुन्दर है,
यह पल, जब वह फूल की गोद में है.

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

११७. सुबह-सुबह




सूरज निकलने के ठीक पहले 
कितना अच्छा लगता है सब कुछ!

चहचहाने लगते हैं 
घोंसलों से निकलकर परिंदे ,
रात भर की नींद से जागकर 
कुनमुनाने लगते हैं बच्चे,
दिन के पहले आलिंगन को 
बेताब हो उठते हैं नए जोड़े.

खेतों में निकल पड़ते हैं किसान,
सैर को निकल पड़ते हैं बूढ़े,
गूँज उठती हैं तरह-तरह की आवाजें,
फिर से जी उठता है जीवन.

सिन्दूरी हो जाता है 
आसमान का एक कोना,
जैसे किसी ने उसके माथे पर 
लाल टीका लगा दिया हो.

ऐसे में मुझे डराती है 
अनिष्ट की आशंका,
ऐसे में मेरा मन करता है 
कि आकाश के दूसरे कोने पर 
एक काला टीका लगा दूं.

शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

११६. वरदान

किसी मुसलमान की बगिया में 
एक सुन्दर फूल खिला,
किसी सिख की गाड़ी में 
वह बाज़ार तक पहुंचा,
किसी ईसाई ने उसे बेचा,
किसी हिंदू ने ख़रीदा 
और मूर्ति पर चढ़ाया.
अचानक चमत्कार हुआ,
भगवान प्रकट हुए,बोले,
"बहुत खुश हूँ मैं आज,
आज मांग, जो चाहे मांग."

शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

११५. घरौंदा

एक घरौंदा जो बचपन में  
हमने अधूरा छोड़ा था,
आओ, आज उसे पूरा करें.

ज़रा टूट-फूट गया होगा 
वह आधा-अधूरा घरौंदा,
थोड़ी सूख गई होगी
उसकी गीली चिकनी मिट्टी,
पर यह ऐसी दिक्कत नहीं 
जो दूर न हो सके.

ज़रूरत हो तो नई मिट्टी ले लें,
एक नया घरौंदा बनाएँ,
देखना, हमें वैसा ही लगेगा,
जैसा बचपन में लगता था,
फिर से वही खुशी मिलेगी,
वही सुख जिसका स्वाद 
हम भूल चुके हैं.

चलो, वह अधूरा घरौंदा पूरा करें
या एक नया घरौंदा बनाएँ,
चलो, छोड़ दें शर्म-झिझक,
अब भूल भी जांय 
कि हम बड़े हो गए हैं,
आओ, अतीत में लौट जांय,
एक बार फिर से बच्चे बन जांय.

गुरुवार, 23 जनवरी 2014

११४. सूरज


बहुत थक गया हूँ मैं,
मुझे रोको मत, जाने दो.

मुझे विश्राम चाहिए,
अपने लिए नहीं, तुम्हारे लिए
ताकि तरोताज़ा होकर 
मैं फिर लौट सकूं,
फिर हो सकूं तुम्हारे साथ,
फिर भगा सकूं अँधेरा.

वैसे तुम परेशान क्यों हो?
अँधेरे में ऐसा क्या है,
जिससे डरा जाय?
वह तो खुद डरपोक है,
वह तो खुद कमज़ोर है,
छिपा होगा यहीं कहीं
मेरे जाने के इंतज़ार में.

जैसे ही मैं जाऊँगा,
वह निकल आएगा,
तुम्हें डराने, सताने,
पर उसे भी पता है 
कि मैं हारा नहीं हूँ,
बस थोड़ा थका हूँ.

उसे भी पता है
कि मैं शीघ्र लौटूंगा 
और तब उसे 
फिर से छिपना होगा.

शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

११३. मकान सिसकते हैं

मकान सिसकते हैं,
मैंने महसूस किया है.

जब किसी घर में बर्तन
ज़ोर-ज़ोर से खड़कते हैं,
मकान सहम जाते हैं.
जब भरे-पूरे घर में 
चुप्पी सी छाई हो,
मकानों को अच्छा नहीं लगता.
जब किसी अकेले कोने में 
चुपचाप बैठा कोई बूढ़ा 
खाने की थाली का इंतज़ार करता है,
मकान की रुलाई फूटती है.
जब कोई हमेशा के लिए 
घर छोड़कर जाता है 
या निकाला जाता है,
मकान का दिल भर आता है.

जब घर टूटते हैं,
मकान सिसकते हैं,
हाँ, मैंने ऐसा महसूस किया है.

रविवार, 5 जनवरी 2014

११२. इंतज़ार

तुम्हारे काले बालों के बीच 
एकाध बाल जो सफ़ेद हो गए हैं,
अच्छे लगते हैं,
तुम्हारे चेहरे की एकाध झुर्रियाँ 
अच्छी लगती हैं,
तुम्हारे एकाध दांत,
जो चटख गए हैं 
अच्छे लगते हैं.

आजकल तुम्हारा चेहरा 
नया सा लगता है,
तुम्हारी मुस्कराहट 
अलग सी लगती है,
आजकल तुम 
कुछ नई सी लगती हो.

सुनो, तुम पूरी तरह बूढ़ी कब होओगी?