शनिवार, 31 मई 2014

१२८. पानी सूरज से


मत सोखो मुझे,
यहीं मिट्टी में बहने दो,
प्यासे होंठों को मेरी ज़रूरत है,
बीज प्रस्फुटित होंगे मुझसे,
हरियाली को मेरी ज़रूरत है.

मुझे नहीं जाना कहीं और,
मुझे नहीं उड़ना आसमान में,
मैं नीचे ही ठीक हूँ,
जीवन को मेरी ज़रूरत है.

चलो, नहीं मानते,तो सोख लो मुझे,
ले चलो मुझे आसमान में,
मैं वहाँ खुश नहीं रहूँगा,
इधर से उधर भटकता रहूँगा 
और जैसे ही मौका मिला,
बरस जाऊँगा,
फिर से मिट्टी में मिल जाऊँगा.

रविवार, 25 मई 2014

१२७. आह्वान




बूंदों, आओ, बरस जाओ,
दूर कर दो ताप धरती का,
प्यासों की प्यास बुझा दो.

हर गांव, हर शहर,
हर जाति, हर धर्म,
स्त्री-पुरुष, छोटे-बड़े -
सब पर बरस जाओ.

गरीब की कुटिया पर बरसो,
धनी के महल पर भी,
खेत-खलिहान पर बरसो,
सूखे रेगिस्तान पर भी,
भूखों-नंगों पर बरसो,
संपन्न और तृप्त पर भी.

मेरे पड़ोसी पर बरसो,
थोड़ा-सा मुझ पर भी.

बूंदों, आज ऐसे बरसो 
कि कोई बाकी न रहे,
कोई न कह सके 
कि उसके साथ 
आज फिर भेदभाव हुआ.

शनिवार, 17 मई 2014

१२६. नदी


बहुत बह चुकी मैं हरे-भरे मैदानों में,
खेल चुकी छोटे-सपाट पत्थरों से,
देख चुकी हँसते-मुस्कराते चेहरे,
पिला चुकी तृप्त होंठों को पानी.

अब कोई भगीरथ आए,
मुझे रेगिस्तान में ले जाए,
बहने लगूं मैं तपती रेत पर,
बांटने लगूं थोड़ी ठंडक,थोड़ी हरियाली.

मैं निमित्त बनूँ 
पथराई आँखों में कौन्धनेवाली चमक का,
मुर्दा होंठों पर आनेवाली मुस्कराहट का.

मैदानों में आराम से चलकर 
समुद्र में मिल जाने 
और जीवित रहने से तो अच्छा है 
कि मैं रेगिस्तानी रेत में बहूँ 
और वहीँ मर जाऊं.

शुक्रवार, 9 मई 2014

१२५. पेड़ पथिक से


पथिक, मेरा मन होता है 
कि मेरी छांव में सुस्ताने के बाद 
तुम जब मंजिल की ओर बढ़ो 
तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँ.

मुझे नहीं मालूम 
कि तुम्हारी मंजिल क्या है 
और तुम्हें जाना किधर है,
मैं तो बस तुम्हारी यात्रा में 
सहयात्री बनना चाहता हूँ
ताकि देख सकूं तुम्हारा संकल्प,
दृढ़ निश्चय से भरे तुम्हारे कदम,
तुम्हारा कभी हार न मानना,
बस लगातार चलते जाना,
पर पथिक, मैं मज़बूर हूँ,
मेरी जड़ों ने मुझे 
ज़मीन से जकड़ रखा है.

मुझे तो अपनी जगह खड़े-खड़े 
तुम जैसे पथिकों को छांव देनी है,
मेरी तो यात्रा भी यहीं है 
और मंजिल भी यहीं.


शुक्रवार, 2 मई 2014

१२४. श्राद्ध

इस बार मुझे कुछ संदेह है,
इस बार लगता है श्राद्ध अधूरा रहा.

रीतिपूर्वक सब पकवान बने,
पूजा-अर्चना भी नियम से हुई,
बारह हिंदू ब्राह्मणों ने 
प्रेमपूर्वक भोजन किया,
फिर भी मन में एक खटका है.

पता नहीं, जिन गायों को मैंने ग्रास दिया,
वे हिन्दू थीं या मुसलमान,
और जिन्होंने सबसे पहले पकवान चखे,
वे कौवे कौन थे !